अमेरिका चाहता है भारत को बली का बकरा बनाना










अमेरिका चाहता है भारत को बली का बकरा बनाना




भारत के गोर्बाचोव न बन जायें मनमोहन




हिलेरी क्लिंगटन ओबामा का संदेश लेकर आई हैं , अमेरिका आतंकवाद के खिलाफ़ जंग में हमारे साथ है । न्यूक्लियर डील को लागू करने के लिये अमेरिका प्रतिबद्ध है । यानी चिंता करने की जरुरत नही है । दुनिया का सबसे बडा दबंग राष्ट्र हमारे साथ है , यह दिगर बात है कि कभी यह हमारे खिलाफ़ पाकिस्तान को युद्ध मे मदद करता था , गलती अमेरिका की भी नही थी , हम रुस के साथ थें जिसे अमेरिका पसंद नही करता है । फ़िर दुनिया के इस दबंग ने कम से कम हमारी स्थिति अफ़गान जैसी तो नही की। अब यह अलग बात है कि हमसे न्यूक्लियर समझौता , आतंकवाद के खिलाफ़ जंग में साथ का वादा लेकिन युद्धक विमान पाकिस्तान को। हमारी कोई लडाई किसी से नही है , न तो अल कायदा से न किसी अन्य आतंकवादी संगठन से । हम सक्षम हैं अपनी लडाई लडने में और आतंकवाद को प्रश्रय देनेवाले मुल्कों से निपटने में। तब प्रश्न उठता है रुकावट कहा है , जब हम सक्षम हीं है ।


रुकावट है अमेरिका , काश्मीर में आतंकवादियों के खिलाफ़ कुछ नही कर सकते , मानवाधिकार की बात है , भले कश्मीर की हिंदु आबादी को घाटी छोड देनी पडे । रुकावट हैं वह हथियार जिसके बल पर पाकिस्तान घुडकी देता है , वह हथियार पाकिस्तान को देता हैं दुनिया का सबसे बडा दबंग अमेरिका ।


चीन हमसे नही लड सकता , उसे गर्ह युद्ध झेलना होगा । चीन में रोज विद्रोह हो रहे हैं , वहां रह रहे मुसलमानों के द्वारा , बौद्ध धर्मावलंबियों के द्वारा । ताईवान असली चीन है , मौका मिलते हीं लाल सेना का शासन खत्म कर देगा। चीन में विद्रोह की चिंगारी राख तले दबी हुई है , साम्यवाद की राख । वैसे अब कोई भी मुल्क एक परमाणु युक्त राष्ट्र के साथ युद्ध नही कर ्सकता है विनाश की संभावना पैदा हो जायेगी।


अमेरिका आर्थिक साम्राज्यवाद के तले हमे गुलाम बना रहा है । हम विदेशी वस्तुओं का स्वागत करते हैं , विदेशी कंपनियों के द्वारा अपनी कमाई के लिये लगाये जा रहे उद्योगों को विदेशी निवेश कहते हैं , हमारे नेतागण बडे गरुर के साथ भाषणों में सुनाते हैं इतने हजार करोड का विदेशी निवेश हुआ । देश हमारा, मजदूर हमारा, जमीन हमारी, कच्चा माल हमारा और फ़ायदा उस विदेशी कंपनी का। इसे हीं विदेशी निवेश कहते हैं।


ग्लोबलाईजेश्न के दौर की शुरुआत में सरकार ने सबसे पहला काम किया सरकारी कंपनियों के विनिवेश का यानी उसे बेचने का। औने- पौने दाम पर सरकारी कंपनियां बिक गई। एक कंपनी थी विदेश संचार निगम , उसे टाटा को बेचा गया था, बिकने के पहले उस कंपनी के शेयर के दामों में भारी गिरावट आई कारण था कंपनी की कीमत कम लगाना।


हिलेरी क्लिंगटन भारत आकर अमेरिका की आतंकवाद के खिलाफ़ प्रतिबद्धता और भारत को न्यूक्लियर सहयोग देने की बात दुहरा रही हैं। वस्तुतु: हिलेरी के दौरे का सिर्फ़ यह कारण नही है , पाकिस्तान की चीन के साथ बढती नजदीकी और पुरे विश्व में अमेरिका के खिलाफ़ बढता विरोध अमेरिका के लिये गहन चिंता का विषय है । अमेरिका को भारत की जरुरत है जिसका उपयोग वह चीन तथा पाकिस्तान दोनो पर नियंत्रण के लिये कर सकता है ।


आर्थिक सम्राज्यवाद यानी विदेशी वस्तुओं के लिये बाजार के विस्तार के लिये भारत का सहयोग चाहिये । ओसामा के खात्मे के लिये पाकिस्तान में घुसने के कारण दोनो देशों के बीच संबंधों में एक खटास आ गई है , इसका फ़ायदा उठाकर चीन पाकिस्तान को अपने संग लाना चाहता है , हालांकि अमेरिका और पाकिस्तान दोनो को एक दुसरे की जरुरत है , इसलिये संबंधो में आई खटास अस्थायी है सिर्फ़ लेन –देन और अपने-अपने देश की जनता को बहलाने की कवायद भर है यह। पाकिस्तान अमेरिका की मजबूरी है , कारण है आतंकवाद , विश्व के सभी देशों को यह भय सता रहा है कि अगर पाकिस्तान में कोई कटरपंथी सरकार सता में आ गई तो एटम बम का फ़ार्मूला और उससे संबंधित सारी जानकारी आतंकवादी ग्रुपों तक पहुंच जा सकती है ।


अफ़गानिस्तान में टिकना अमेरिका के लिये महंगा साबित हो रहा है , अमेरिका को एक ऐसे देश की जरुरत है जो उसकी लडाई लडे और उस लडाई को अपनी लडाई समझ कर लडे । अमेरिका की प्रत्यक्ष कोई भूमिका न हो लेकिन अप्रत्यक्ष रुप से वह लडाई उसके इशारे पर लडी जाय । भारत का राजनीतिक माहौल एवं जन मानस की भावना अमेरिकी हित के अनुकूल है ।

आतंकवादी हरकतों के कारण लोगों का गुस्सा पाकिस्तान के प्रति उबाल पर है , पाकिस्तान को हीं उसका दोषी मान रहे हैं , जबकि सच्चाई यह है कि पाकिस्तान अभी भारत से ज्यादा आतंकवादी घटनाओं का सामना कर रहा है । अमेरिका ने भारत के राजनीतिक दलों की मानसिकता को भी समझ लिया है । सारी दुनिया में अगर पाकिस्तान तथा इस्लामिक आतंकवाद के खिलाफ़ सबसे ज्यादा विरोध कहीं है तो वह भारत में है । इसका इस्तेमाल अमेरिका अपने हित के लिए करेगा कंधा होगा भारत का , बंदूक होगी अमेरिका की ।

भारत को अमेरिका की इस चाल को समझना होगा अन्यथा एक कभी न समाप्त होनेवाले युद्ध का मोहरा भर बनकर रह जायेगा भारत । मनमोहन सिंह का रवैया , विघटन के पहले यानी पेत्रोइस्तिका की शुरुआती दौर वाले गोर्बाचोव की तरह है , मनमोहन राजनीतिग्य नही हैं , गोर्बाचोव की तर्ज पर जरुरत होने पर अमेरिका में जा बसेंगें , किसी विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर बनकर ।
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