आलोक धन्वा : एक कामलोलुप जनकवि भाग २

जनवादी कवि आलोक धन्वा ने क्रांति भट्ट उर्फ़ असीमा भट्ट से प्रेम विवाह किया था। असीमा के पिता सुरेश भट्ट साम्यवादी विचारधारा के क्रांतिकारी थें । जय प्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति आंदोलन से जुडे सुरेश भट्ट बिहार के नवादा जिले के धनी परिवार के थें परन्तु दिल के किसी कोने में अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष की भावना ने इन्हें क्रांतिकारी बना दिया । लालू, नीतीश , सुरेश भट्ट को गुरु कहा करते थें । जार्ज फ़र्नाडिस जैसा समाजवादी नेता भी सुरेश भट्ट का बहुत सम्मान करते थें । आज सुरेश भट्ट दिल्ली के एक ओल्ड एज होम में बिमार अवस्था में मौत का इंतजार कर रहे हैं । सुरेश भट्ट की पुत्री क्रांति भट्ट ने अपने से दुगुने उम्र के आलोक धन्वा से विवाह किया । आलोक धन्वा कहने को तो समाजवादी विचारधारा के होने का दिखावा करते थें लेकिन वास्तव में पुरुष प्रधान समाज के एक ऐसे व्यक्ति रहे जिन्होने प्रेम सिर्फ़ शरीर की चाह के लिये किया था । असीमा भट्ट रंगमंच की कलाकार हैं । प्यार भी यातना देता है , जिंदगी को नर्क बना देता है लेकिन जिवन की चाह एक झटके में सबकुछ तोडकर , रिश्तो को जलाकर निकलने भी नही देती । असीमा ने दर्द को जिवन बना डाला , पुरी शिद्दत के साथ चलती रहीं अंगारों पर , आज भी चल रही हैं। शायद इस जहां में सबको सबकुछ नही मिलता । यहां हम क्रांति भट्ट की आत्मकथा के उन अंशो को प्रकाशित कर रहे हैं जिनमें क्रांति भट्ट ने आलोक धन्वा के असली चरित्र का चित्रण किया है । कल भाग १ को प्रकाशित किया गया था । आज भाग २ पढें






दर्द का हद से गुजरना है दवा हो जाना-2







मुझे शादी के बाद पत्नी का कोई अधिकार नहीं मिला. घर के परदों का रंग भी उनकी प्रेमिका तय करती थी. हालांकि आलोक सिनेमा नहीं देखते थे लेकिन एक बार मेरे बहुत जिद्द करने पर जब हम फिल्म सरदारी बेगम देखने गये तो वह अपनी प्रेमिका को भी साथ ले गये और वह हम दोनों के बीच में बैठी. मेरे लिए यह सब असह्य और अपमानजनक था. आलोक से सबसे बड़ी शिकायत मेरी यह रही कि उनमें कभी कोई निर्णय लेने की ताकत नहीं थी. हर बार, हर बात में जो भी करना है, वह उन दीदी से पूछ कर करना. उसे भी मैं नजरअंदाज करती रही, लेकिन मेरे मामलों में उनकी दखलंदाजी दिन पर दिन बढ़ती ही गयी. ऊपर से आलोक हमेशा यह कहें कि वे उम्र में तुमसे बड़ी हैं, कॉन्वेंट में पढ़ाती हैं, उनसें सीखो.
मुझे पहले ही दिन से उस औरत का विरोध करना और एक पत्नी के अधिकार के

लिए कदम उठाना चाहिए था. धीरे-धीरे मैं उदासीन और निराश होती चली गयी, जो जैसा चल रहा है, चलने दो. जहां एक ओर मैं आलोक का आत्मविश्वास बढ़ाने का काम कर रही थी, वहीं मेरा अपना आत्मविश्वास मेरे हाथ से छूटने लगा. और तब मुझे लगा कि नहीं, मुझे इस तरह से हार नहीं माननी है. इसलिए मैंने पटना छोड़ने का फैसला कर लिया. ऑफिस, थिएटर और घर के काम में मैं पिसती रहती थी. अकेली, आलोक कभी कोई मदद नहीं करते. खाना बनाना, कपड़े धोना और घर की सफाई. कभी-कभी उनकी बहन मेरे घर आती तो कहती-तोहार घर त आईना एइखन चमकत बा. (तुम्हारा घर तो आईने की तरह चमकता है). एक और बात बताते हुए अब तो हंसी आती है कि जब मैं आलोक के साथ थी तो वे नौकरानी नहीं रखते थे. मैं घर का काम करने के बाद नौकरी करने जाती, फिर शाम को थिएटर करके वापसघर आ कर घर का काम करती. कभी थकी होती तो कहती, आज ब्रेड ऑमलेट या पनीर खा लो, खाना बनाने की हिम्मत नहीं है, तो वे कहते-तुम तो पांच मिनट में खाना बना लेती हो. रात तो अपनी है, थोड़ा देर से ही सही पर खाना तो बनना ही चाहिए. अब जब मैं अलग रहने लगी तो मेरे प्यार का दम भरनेवाला इनसान दो-दो नौकरानियां रखता है. एक नौकरानी का नाम शांति था. जब कभी छुटि्टयों में मैं घर (पटना) जाती तो वह मुझे शांति कह कर पुकारते थे.
मैं अपनी मरज़ी से घर पर किसी को बुला नहीं सकती थी. कभी मेरी मां-बहन मेरे घर आयी तो मेरे पति ने उन्हें अपमानित करके बाहर निकाल दिया. एक बार मेरी छोटी बहन बीमार थी. वह डाक्टर को दिखाने मेरे पास आयी. मैंने जब अपनी बहन को अपने पास रखने का फैसला लिया तो उन्होंने मुझे अपनी भाभी और उसके परिवार के सामने पीटा. एक बार उन्होंने ऐसे ही देर रात को मेरी मां को घर से निकाल दिया. मेरी मां ने एक गंदी धर्मशाला में रात गुजारी जहां पीने का पानी तक नहीं था जबकि मेरी मां ब्लडप्रेशर की मरीज हैं.
बस समय बीतता गया और एक दिन वह भी आया जिसका इंतजार दुनिया की हर औरत करती है. मां बनने का इंतजार ! वह दिन मेरी जिंदगी में भी आया. आलोक को शायद अंदेशा लग गया था. उन्होंने जबरदस्ती मुझे अपनी परिचित डाक्टर शाहिदा हसन के पास भेजा. शाहिदा जी मुझे बेहद प्यार करती थीं. मुझे कभी-कभी लगता वे मेरी मां भी हैं, डाक्टर भी और एक सहेली भी. चेकअप के बाद उन्होंने मुझे मुस्कुराते हुए गले लगा लिया और मुझे मां बनने की शुभकामनाएं दीं. मैं शरमा गयी.
मेरे लिए यह मेरी जिंदगी का पहला और अनोखा अनुभव था. क्लीनिक से घर आते-आते रास्ते भर में न जाने कितने ख्याल मन में दौड़ गये, कितने सपने मैंने बुन डाले. घर जा कर पति से क्या कहूंगी, कैसे कहूंगी. हिंदी सिनेमा के कई दृष्य आंखों के सामने घूम गये. जब एक नायिका अपने पति से कहती है कि मैं मैंने कई दृष्यों की कल्पना की. मेरा होनेवाला बच्चा कैसा होगा. लड़का होगा या लड़की? घर पहुंची तो दरवाजा खोलते ही मेरे पति चीखे- कहां थी इतनी देर? मैं कब से इंतजार कर रहा हूं चाय भी नहीं पी है मैंने, जाओ, जल्दी चाय बनाओ, और मैं बस मुस्कुराती जा रही थी. मुझे लगा शायद वे मेरे शरमाने से समझ जायें, लेकिन नहीं, हार कर मैंने ही बताया, शाहिदा जी के पास गयी थी. तो? उनके चेहरे का जैसे रंग उड़ गया.

-मैं प्रेगनेंट हूं.

-यह कैसे हो सकता है? यह मेरा बच्चा नहीं है.

इस तरह से मेरे आनेवाले बच्चे का स्वागत हुआ. मैं किस कदर टूटी, इसका अंदाजा कोई नहीं लगा सकता. बच्चे को लेकर जो सपने मैंने देखे थे, बुरी तरह बिखर गये. रात भर सो नहीं पायी. खाना भी नहीं खाया और रोती रही. सुबह होते ही मैं शाहिदा जी के पास गयी और सब कुछ बताया. उन्होंने मुझे अबॉर्शन की सलाह दी. मैं आज भी नहीं जानती कि मेरा वह फैसला सही था या गलत पर यह सच है कि मुझे आज भी अपने बच्चे को खोने का दुख है. मैं देखना चाहती थी, मेरे गर्भ में जो बच्चा था वह लड़का था या लड़की. देखने में कैसा होता. आज वह होता तो कितने साल का होता.
मैं मां बनना चहती थी पर ऐसे इनसान के बच्चे की नहीं जो अपने बच्चे को स्वीकारना ही नहीं चाहता हो. मैंने कहीं प़ढा़ था, मेल मीन्स प्रोवाइडर एंड प्रोटेक्टर. मेरे मन में हमेशा से अपने होनेवाले पति की बहुत ही सुंदर छवि थी. वह इनसान ऐसा होगा, जो मुझे बेहद प्यार करेगा. मैं उसकी बांह पकड़ कर चलूं तो लगे कि सारी दुनिया मेरे साथ चल रही है. वह मेरी ताकत और आत्मविश्वास बनेगा. लेकिन यहां तो मैं ऐसे इनसान के साथ रह रही थी, जिसके बदन से हमेशा दूसरी औरत की बू आती थी. न मुझे मेरा घर अपना लगा था, न बेडरूम. सब कुछ बंटा हुआ. हर वक्त किसी दूसरी औरत की मौजूदगी मेरे मन को सालती रहती थी. बच्चे के आने की खबर से अपनी टूटती गृहस्थी बचाने की उम्मीदें जितनी बढ़ गयी थीं, इस घटना के बाद मैं उतना ही टूट गयी. आज तक अपने पर लगा आरोप और उससे पैदा हुआ अपमान नहीं भूलती. आज भी पूछती हूं अपने पति से किसका बच्चा था वह, मुझे तो नहीं पता, तुम्हें पता हो तो तुम्हीं बतला दो. औरत के लिए दुनिया की सबसे गंदी गाली है कि उसे अपने बच्चे के बाप के बारे में मालूम न हो. सिर्फ कुतिया ही नहीं जानती कि उसके पिल्लों का बाप कौन है. मुझे खुद से नफरत हो गयी थी. मेरे भीतर की स्त्री, प्रेम, संवेदना सब कुछ जैसे एक झटके में समाप्त हो गये. मुझे किसी का छूना तक अच्छा नहीं लगता. नतीजतन हमारे बिस्तर अलग हो गये. एक ही छत के नीचे रहते हुए भी हम अलग-अलग कमरों में बंट गये. लेकिन दुनिया के सामने एक अच्छी पत्नी बने रहने में मैंने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी. इस सबके बावजूद उनके स्वास्थ्य का, खाने-पीने में उनकी पसंद-नापसंद का हमेशा ध्यान रखा. कब उन्हें खाने में दही चाहिए, कब पपीता, कब छेना, कब केला और कब सलाद तो कब शाम को ग्रीन लेबल चाय और साथ में नाइस बिस्किट. आज भी मुझे उनकी सारी दिनचर्या याद है, जबकि हमें अलग हुए छह साल बीत गये.
बड़ा मुश्किल हो रहा है आगे लिखना. ऐसा लगा रहा है जैसे मैं ऑपरेशन थियेटर में लेटी हूं और मेरे जख्मों की चीर-फाड़ हो रही है. दुबारा उसी दर्द, उसी यातना से गुजर रही हूं.
मैंने जिस इनसान से शादी की, उसकी और हमारी उम्र में दो दशक का फासला था. शादी की एक रात में ही मैं अपने 20 साल पीछे छोड़ आयी. बीच के वे साल मैं जी नहीं पायी. अचानक मैं 20 साल बड़ी हो गयी. मैं अचानक अपनी उम्र के बराबर के लोगों की चाची-मामी और नानी-दादी बन गयी. बड़ा अजीब लगता, मुझे जब मेरे पिता या चाचाजी के उम्र के लोग मुझे भाभी बुलाते या मुझसे मजाक करते. एक बात और मैंने गौर की, मेरे पति को किसी से भी मेरा हंस कर बात करना अच्छा नहीं लगता. मैं उनके दोस्तों या परिवार या रिश्ते के भाई या बहनोई से सिर्फ इसलिए ठीक से बात करती क्योंकि यह एक स्वाभाविक कर्टसी है कि घर आये मेहमानों से ठीक से या तहजीब से बात की जाये, जबकि मेरा अपना कोई दोस्त, परिचित या परिवार का सदस्य मेरे घर नहीं आता था, क्योंकि मेरे पति को पसंद नहीं था इसलिए मैंने सबसे नाता तोड़ लिया था. उनके ही परिवार के सदस्यों की और मित्रों की मैं खातिर-तवज्जो करती और उनके जाने के बाद ताने मिलते कि मैं बड़ा हंस-हंस कर बात करती हूं. इस तरह के आरोप मुझे बहुत सालते पर मैंने ये बातें किसी को नहीं बतायीं. सब कुछ चुपचाप सहती और बरदाश्त करती रही. उनकी भाभी, मुझे प्यार से बेटी बुलाती थीं, क्योंकि उनकी बेटी मेरे बराबर की थी. मुझे भी उनका इस तरह प्यार से बुलाना अच्छा लगता था. मैं उन्हें मां समान मानती थी. एक दिन उनसे रोते हुए मैंने कहा- भाभी हमारा घर बचा दो. हमारे बीच कोई रिश्ता नहीं है. हम सिर्फ दुनिया की नजर में पति-पत्नी हैं.






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