ममता : आओ शहीदों को याद करें



ममता : आओ शहीदों को याद करें
बुद्धादेव भटाचार्य को सलाम
भ्रष्टाचार , बदलो सरकार बारम्बार
जैसी की संभावना थी उस अनुरुप चुनाव के नतिजे आयें । बंगाल में ममता का आना तय था । रेल मंत्री के रुप में अत्यंत घटिया प्रदर्शन दिखानेवाली ममता की जीत एक रहस्य है तब तो और जब जन मानस उनके समर्थन में पिछली बार कि तरह उत्साहित नही दिख रहा था (रैलियों में भीड हमेशा उनके साथ रही है १९९० से ) । बंगाल के लोगों से बातचीत के बाद यह जाहिर हो चुका था कि विकल्पहिनता का विकल्प हैं ममता जैसे बिहार में नीतीश । बंगाल की राजनिति ढकिया (बंगला देश से भारत में आ बसे ) और गैर ढकिया बंगाली समाज के इर्द – गिर्द रही है । पाकिस्तान के बटवारे के बाद बंग्लादेश से बंगाल में आ बसे बंगालियों को सबसे ज्यादा खतरा मूल बंगाली समाज से था जिसे भद्रलोक कहा जाता है । ये संभ्रांत समाज के बंगाली हैं। लेखक , रचनाकार , साहित्यकार ज्यादातर इसी संभ्रांत बंगाली समाज के हैं। ढकिया बंगालियों ने शुरुआत से हीं साम्यवादियों को समर्थन दिया नतीजा , १९७७ से लगातार सता पर साम्यवादी काबिज रहें। बुद्धादेव भटाचार्य के पहले ज्योति बसु के शासनकाल में बंगाल में समानांतर सता थी । एक संवैधानिक चुनी हुई , दुसरी साम्यवादियों की जो अप्रत्यक्ष रुप से सता को संचालित करते थें। थाने से लेकर सचिवालय तक वही होता था जो साम्यवादियों की विभिन्न स्तर पर स्थापित कमेटियां चाहती थीं। हर गांव और मुहल्ले में एक क्लब था साम्यवादी कैडरों का । दिन भर कैरेम और ताश खेलना यही काम था क्लब के सदस्यों का । उनका खर्चा नजायज कमाई यानी सरकारी विभागों में काम करवाने से होने वाली आय से होता था । किसी भी सरकारी विभाग में कोई भी काम हो इन क्लब वालों को एक निर्धारित राशी अदा कर देने पर ये करवा देते थें। वस्तुत: संस्थागत दलाली का काम साम्यवादी करते थें। स्थिति इतनी खराब हो चुकी थी कि बिना इनके आगे गिडगिडाये काम होना मुश्किल था । सभी गांव और शहर इनके नियंत्रण में थें। रेलवे तक में कुलियों की एक नई संस्था स्थापित हो गई थी ब्लू वर्दी वाले जो ट्रेनों की अनारक्षित सिटों को कब्जा करके बेचते थें। ज्योति बसु के शासनकाल में ये अपने पुरे शबाब पर थें। जनता में क्षोभ पैदा हो रहा था । इनकी दादागिरी बढती जा रही थी । साम्यवादी भी यह समझने लगे थें की पार्टी के बैनर तले गुंडातंत्र विकसित हो चुका है , अगर इनके उपर नियंत्रण नही किया गया तो अराजकता पैदा हो जायेगी । दुसरी तरफ़ अतिवाद से ग्रसित लेबर आंदोलन सिर्फ़ फ़ैक्टरियों की तालाबंदी तक सिमट चुका था । रोजगार के अवसर कम हो रहे थें। कभी दुसरे राज्यों के निवासियों को रोजगार देनेवाले बंगाल के निवासी रोजगार के लिये भटक रहे थें। बुद्धादेव भटाचार्य के सता में आने पर साम्यवादियों ने लेबर आंदोलन तथा कैडरों पर नियंत्रण स्थापित करने का प्रयास शुरु किया । लेकिन खुन का स्वाद चख चुके लेबर यूनियन के कार्यकर्ता तथा पार्टी के कैडर सुधरने को तैयार नहीं थे , उन्हें ममता के रुप में एक विकल्प दिखा , वे ममता से जुडने लगें । टीएमसी अराजक तत्वों का शरण स्थल बन गया । ममता भी ढकैया बंगाली हैं इसलिये वाम के मतों का करवट बदलना आसान बन क्या । आज ममता एतिहासिक जीत का जश्न मना रहीं हैं । जनता भी खुश है , कल का भय लेकिन सबको सता रहा है , बंगाल कही ममता की रेलगाडी न बन जाये। रेल का भ्रष्टाचार बंगाल में न आ जाये । कल तक विरोध में रहनेवाली ममता महंगाई जैसे मुद्दों पर खुब लडती थी अब कहीं दुसरों वाला पाठ न पढाने लगे। अफ़सरों की अफ़सरशाही का दंश झेल चुकी , कहीं खुद उनके बहकावे मे न आ जाये । लेफ़्ट से पाला बदलकर ममता का साथ निभाने वाले गांव और मुहल्ले स्तर के उन गुंडो और रंगदारों का क्या होगा , कहीं फ़िर साम्यवादियों वाली क्लब संस्कर्तिे न पैदा हो जाय । ढेर सारे प्रश्न हैं लेकिन सबके बावजूद भी सता परिवर्तन की प्रशंसा करनी चाहिये । प्रजातंत्र की यही खासियत है । रोटी तभी खिलती है जब तवे पर उल्टी – पल्टी जाती है । ३४ वर्षो के बाद सता का परिवर्तन निश्चित रुप से स्वागत योग्य है । साम्यवादी भी सुधरने का प्रयास करेंगे । अपने अंदर खुलापन लायेंगे । माओ के विचारों में जनता के हित के लिये संशोधन करेंगे । साम्यवाद एक व्यवस्था है न की सिर्फ़ सिद्धांत । व्यवस्था में फ़ेरबदल संभव है । जनता की भलाई सिद्धांत से ज्यादा महत्वपूर्ण है । इस पुरे जीत में सबसे गलत कुछ हुआ तो वह है बुद्धादेव भटाचार्य की एक नौकरशाह से हुई हार । लेकिन यह जनता है , अति की आदी ।

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