गण से जुदा तंत्र यह कैसा गणतंत्र


गण से जुदा    तंत्र यह कैसा गणतंत्र

मैं न तो स्वतंत्रता दिवस मनाता हूं और न हीं गणतंत्र दिवस । पहले छात्र जिवन में बडे उत्साह के साथ मनाता था, लेकिन स्नातक होने के बाद जब यह पाया कि न तो हमें स्वतंत्रता मिली और न हीं हम गंणतांत्रिक मुल्क हैं , फ़िर इन दोनो को मनाने का दिखावा क्यों । आजादी जिसे कहते हैं , वह सता का हस्तांतरण था , उसे हासिल करने में हमारी कोई भूमिका नही थीं। सेकेंड वर्ल्ड वार के बाद भारत पर शासन करना आर्थिक रुप से अंग्रेजो के लिये लाभदायक नही रह गया था और इंग्लैंड के चुनाव में लेबर पार्टी का भारत को आजाद करने का  वादा था, इंग्लैंड की संसद ने कानून पास किया , तथा  कुछ शर्तों के साथ सता का हस्तांत्रण  कर दिया। इंगलैंड के शासक चले गयें , देश के शासकों के हाथ में सता आ गई , जनता को बहलाने के लिये इन शासकों ने सता हस्तांतरण को आजादी का नाम दे दिया , जिससे इन्हें सता में काबिज रहने में सहूलियत हो ।  । गणतंत्र दिवस , अपने संविधान की स्थापना के दिन के रुप में मनाते हैं जो आजतक लागू हीं नही हुआ। समाजवादी गणतंत्र की बात हमने की थी , कहां है समाजवाद ? जातिगत आरक्षण को ह्मारे भाग्य निर्माताओं ने लागू कर के संविधान की मूल भावना की हीं हत्या कर दी। आरक्षण का आधार वर्ग था। हमने वर्ग को परिभाषित करने की वजाय जातियों को हीं वर्ग में अनुसूचित कर दिया । यह आरक्षण दस साल के लिये था , उद्देश्य था समाज के सबसे वंचित तबके को सम्मान मिले। बेशक समाज का वह सबसे वंचित तबका दलित और आदिवासी थें। लेकिन हमने उनकी दशा सुधारने की जगह वोट के लिये उनका इस्तेमाल शुरु कर दिया । हमारे नेताओं की नियत साफ़ नही थी। जिस बाबा साहब अंबेदकर का नाम लेकर ये नेता आरक्षण की वकालत करते हैं , उन्होने तो कभी जातिवाद की बात हीं नही की , बल्कि दलितों को भी शिक्षा और विशेष कर अंग्रेजी पढने के लिये कहा ताकि समाज के भीख पर नही , खुद अपनी बदौलत  वे अपना सम्मान हासिल कर सकें। लेकिन आजादी के पहले जो दलित रिक्सा चलाते थें, मजदूरी करते थें , आज उनकी तिसरी-चौथी पीढी भी वही कर रही है । अंबेदकर ने झेला था समाज की विकर्ति का दंश , जैसे हम नल पर चूल्लू में पानी पीते हैं, अंबेदकर उसी तरह स्कुल में पीने के लिये बाध्य थें, अगर चपरासी नही आया किसी दिन तो प्यासे हीं रह जाना पडता था , आज अगर अंबेदकर होते तो शायद नक्सलवादी होतें। खामियां उनके अंदर भी थी , लेकिन सबके बावजूद उन्हें जातिवादी कहना , गाली देना होगा । आज अंबेदकर सिर्फ़ दलितों के नेता बनकर रह गये हैं। उन्हें ब्राह्मण विरोधी दर्शाया जाता है । जिस व्यक्ति का सबसे ज्यादा सम्मान अपने ब्राह्मण गुरु के लिये हो और जिसने अपने उस गुरु के कहने पर अपने नाम के आगे अंबेदकर लगाना शुरु किया , वह ब्राह्मण विरोधी कैसे हो सकता है। दिक्कत है कि ब्राह्मणवाद यानी आडंबर का विरोध करते करते , ब्राहमणो का विरोध करने लगते हैं लोग, खासकर के अधकचरी , जातिवादी मानसिकता वाले तथाकथित अंबेदकरवादी । उसी प्रकार साहु जी महाराज ने सबसे पहले डीनर टेबल पर अंबेदकर के साथ भोजन कर के रुढिवादिता को चुनौती दी थी , उन्हें भयंकर प्रतिरोध का भी सामना करना पडा था । मैं अंबेदकर को न तो दलित मानता हूं और न हीं दलित वर्ग का नेता । वे सिर्फ़ और सिर्फ़ एक भारतीय थें जिसने देश में समतामूलक समाज के लिये प्रयास किया ।

आरक्षण का नासूर अब चुभने लगा है। दलित वर्ग के सवर्ण , सवर्ण वर्ग के दलितों से बडे शोषक हो चुके हैं। आरक्षण का लाभ सिमट कर आर्थिक रुप से सक्षम दलितो तक रह गया है । जो सबसे गरीब तबका है, वह आजादी के साठ साल से ज्यादा गुजर जाने के बावजूद भी , एक बीपीएल का राशन कार्ड और इंदिरा आवास पाकर अपने को धन्य समझता है । आज जरुरत है जातिय आरक्षण को समाप्त कर के वर्ग आधारित आरक्षण व्यवस्था लाने की । आज इसकी जरुरत नही रहती अगर आजादी के बाद नेताओं ने इमानदारी के साथ दलितों की आर्थिक सामाजिक स्थिति को उपर उठाने का प्रयास किया होता। राजनीतिक  स्थिति की जरुरत नही थी । आर्थिक और शैक्षिक रुप से सक्षम  समाज स्वंय अपनी राजनितिक पहचान बना लेता है । आजादी के समय न तो कोई मायावती थी, न लालू या मुलायम । उस समय सता में सवर्ण जाति का वर्चस्व था । यह पाप सवर्ण जाति के नेताओं ने किया , दलितों को अपने टुकडे पर पलने वाला एक वोट बैंक समझा । परिणाम सामने है, नक्सलवाद । खैर मैं कह रहा था कि मैं गणतंत्र दिवस नही मनाता । आप भी सोचे क्या वाकई गणतंत्र दिवस मनाना चाहिये ?
आप सबको कभी न  कभी संविधान की जरुरत महसूस होती होगी , यहां मैं लिंक दे रहा हूं , आप लोड  करके रख ले । Constitution of India

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