दलाल राजदीप सरदेसाई ने किया भ्रष्ट मीडिया का बचाव

 

यहां नीचे एक  लेख आइबीएन १८ के प्रधान संपादक राजदीप सरदेसाई का है। बडे हीं तार्किक ढंग से मीडिया पर लगे इस आरोप को कि अन्ना का आंदोलन मीडिया की देन है, राजदीप ने नकारने की कोशिश की है । बात वहीं तक रहती तो कोई अंतर नही पडता, लेकिन उससे भी आगे बढकर राजदीप ने अन्ना का गुणगान फ़िर शुरु कर दिया है । पत्रकार का असली चेहरा उसकी लेखनी में झलकता है ।
 मीडिया के क्षेत्र में आई गिरावट के लिये अगर दस पत्रकारों को दोषी माना जाय तो उनमें से राजदीप भी एक है । प्रभु चावला , बरखा दत, आशुतोष और रवीश जैसे लोगों का एक ग्रुप है। मीडिया को मैनेज करने के लिये इन सबको मैनेज करना पडता है । ये दलाल हैं। प्रभु चावला तो सीधी बात के नाम पर टेढी बात  करते करते अपने कमाल पुत्र अंकुर चावला के कारण टेढी  बात की जगह सिधी बात करने लगें । अब चावला टेढी बात कर भी नहीं सकते बडी मुश्किल से सीबीआई के चंगुल से बचे हैं और आजकल वनवास झेल रहे हैं। बरखा पत्रकारों के बीच आने की हिम्मत नहीं जूटा पाती है ।अन्ना की सभा में हीं अपमानित हो चुकी हैं , युवा पत्रकार छात्रो के हाथों ।  अपमानित तो राजदीप भी हो चुके हैं , जब इन्होने बरखा का बचाव करते हुये प्रेस क्लब में भाषण दिया था। ।एडीटर्स गिल्ड के अध्यक्ष चुने जानेवाले ये पहले टीवी संपादक थें। टूजी घोटाले में बरखा का बचाव करने तथा बिहार के नीतीश कुमार के पक्ष में मीडिया को मैनेज करने का दोष इनके उपर है । कैश फ़ार वोट कांड में भी इसका दोगलापन सामने आया था । भाजपा ने बहुत हीं ठोक ठठाकर राजदीप को कैश  फ़ार वोट के स्टिंग आपरेशन के लिये चुना था । शर्त यह थी कि लोकसभा की काररवाई के पहले हीं राजदीप वोट के लिये कैश  लेनेवाली सीडी को एयर करेंगें। राजदीप ने एन मौके पर सौदा कर लिया , और जब भाजपा ने देखा कि लोकसभा की कार्रवाई शुरु हो चुकी है  लेकिन स्टिंग आपरेशन का  कोई प्रसारण आइबीएन के द्वारा शुरु नही किया गया है तो भाजपा के नेताओं का माथा ठनका भाजपा के पास कोई रास्ता नही था, नोट को संसद में लहराने लगें भाजपा सांसद ।जबकि आईबीएन सेवेन ने अहमद पटेल और अमर सिंह के घर का भी स्टिंग किया   था ।समझदार दर्शकों ने संसद में नोट लहराने की घटना की आलोचना भी की लेकिन यह सच दर्शको को नही पता था कि किस परिस्थिति में भाजपा को संसद में नोट लहराना पडा । उस केस का अहम सबूत राजदीप के पास है जिसे वे पुलिस को नहीं देकर साक्ष्य छुपाने का अपराध कर रहे हैं ।  








यह राजदीप क्या कह रहा है , उसका हिंदी रुपांतरण अपने जवाब तथा टिपण्णी के साथ हम यहां दे रहे हैं ।



 जो मीडिया के बल  पर जिंदा रहते हैं , मीडिया द्वारा मार भी दिये जाते हैं , जैसे फ़िल्मी डायलाग के साथ राजदीप ने अपने लेख की शुरुआत  की है तथा आगे राजदीप ने अपने लेख में लिखा है कि आइ बी एन -सी एन एन मैन आफ़ द ईयर अवार्ड के दौरान अन्ना ने बडे हीं इमानदारी से यह स्वीकार किया था कि यह मीडिया की हीं देन है कि वह एक क्षेत्रीय व्यक्तित्व से राष्ट्रीय व्यक्तित्व बन गयें। इसके साथ हीं एक बार फ़िर भ्रष्ट मीडिया का बचाव करते हुये आम लोग तथा राजनीतिक लोगो के द्वारा लगाये गये इस आरोप पर कि अन्ना मीडिया की देन था, राजदीप ने एक प्रश्न उठाया है कि क्या वस्तव में अन्ना की लार्जर दैन लाईफ़   इमेज मात्र मीडिया हाइप थी ?  ।



राजदीप आगे यह भी स्वीकार करता है कि इसमे कोई शक नही कि अन्ना के सलाहकारों ने बहुत हीं शातिराना तरीके से मीडिया का उपयोग किया , प्राइम टाइम में दिखाने के लिये प्रेस कांफ़्रेस आयोजित किये, सोश्ल नेटवर्किंग साइट पर कैंपेन चलाया , यह माना जा सकता है कि इनमें कुछ अति भी हुई तथा और कुछ पत्रकारों ने चीयर्स लीडर (क्रिकेट में आधे वस्त्र पहनकर जो लडकियां हर चौके छक्के पर डांस करती  हैं ) जैसा व्यवहार किया लेकिन अन्ना के आंदोलन को पूर्णत : मीडिया की देन मानना , सडकों पर उतरी जनता के मूड का अर्थ गलत समझ्ना है। भीड इसलिये नही इकठ्ठी हुई थी कि कैमेरा वहां था बल्कि अन्ना विभिन्न तरह के घोटालों मे घिरे नैतिक रुप से दिवालिया राजनैतिक नेतर्त्व के खिलाफ़ एक प्रतिबिंब बनकर उभरे थें।



(बडे कमीना हो यार राजदीप , एक बार भी यह नही कहा कि एक सडियल कानून के पक्ष में भ्रष्टाचार के खिलाफ़ उभरे जनाक्रोश को भटकाने में सबसे अहम भूमिका मीडिया की थी, और तुम्हारा आइ बी एन तो उसमें सबसे आगे था , आम लोगो को तुम बिकी हुई मीडिया के लोगों ने एक बार भी नहीं  बताया कि यह लोकपाल नाम का तोपपाल मात्र रुपांतरण है ओबडसमैन का और दुनिया के ५६ से ज्यादा देशो में है , यहांतक की पाकिस्तान में , तुमहारे चोर मीडियावालों ने एक तरफ़ा प्रचार करने का काम किया । तुमलोगों ने भीड को भी बढाकर दिखाया , इस तथ्य को भी छुपाया कि आर एस एस के लोग अन्ना के आंदोलन की भीड हैं )



आगे फ़िर यह बिकी हुई मीडिया का दलाल राजदीप लिखता है कि जंतर मंतर के अपने पहले अनशन के बाद प्रेस कल्ब में आयोजित प्रेस कांफ़्रेस में उपस्थिति बहुत कम थी और ज्यादा से ज्यादा अन्ना राष्ट्रीय मीडिया के लिये उत्सुकता की वस्तु थें , उसके बावजूद भी शरद् पवार के द्वारा मंत्रियों के समूह से इस्तीफ़ा देना , अन्ना के इस तर्क को स्थापित कर गया कि एक भ्रष्ट नेता भ्रष्टाचार विरोधी कानून के निर्माण वाले पैनेल में नही होना चाहिये । दो दिन बाद , सरकार द्वारा अन्ना ग्रुप और सरकार के लोगो की  संयुक्त समिति ने अन्ना के दावे को पुख्ता किया और एक नया विचार टीम अन्ना उभरकर सामने आया ।



(बडा शातिर है यह राजदीप , इसने फ़िर चोर मीडिया का बचाव किया है , प्रेस कांफ़्रेस के पहले हीं बिकी हुई मीडिया अन्ना को एक अवतार घोषित कर चुकी थी , अन्ना को एक ऐसे आदमी के रुप में प्रोजेक्ट किया जो महा गरीब है, उसके पास एक फ़ूटी कौडी नही है और वह गांधी का अवतार है । जबकि मीडिया को पता था, अन्ना शरद पवार के खिलाफ़ एक खीज  की उपज था, दस ट्रस्ट चलाता था, उसके उपर भी भ्रष्टाचार का आरोप साबित हुआ था । वह करोडो का सरकारी अनुदान अपने ट्रस्ट के लिये हर साल लेता था, उसके बाद भी सरकार के निर्देश के खिलाफ़ काम करता था और जिन बच्चों के लिये अनुदान आता था , उनसे भी पैसा लेता था , पढाने और हास्टल में रखने के लिये , राजदीप की बिकी हुई मीडिया ने सिर्फ़ और सिर्फ़ झूठ परोसा और देश के लोगों की भावना से खिलवाड किया )

आगे यह राजदीप लिखता है कि ९ अप्रील तक अन्ना , भ्रष्टाचार के खिलाफ़ दुसरी आवाजो की तरह मात्र एक आवाज थें। सरकार द्वारा अन्ना के साथ बातचीत और अन्ना के लोगों की लोकपाल ड्राफ़्टिंग समिति में लिये जाने ने अन्ना को सिविल सोसायटी के एकमात्र प्रवक्ता के रुप में स्थापित कर दिया और अचानक हीं , अरुना राय, जयप्रकाश नारायन (  लोकसत्ता वाले ) तथा भ्रष्टाचार विरोधी अनेको कार्यकर्ताओं को हासिये पर खडा कर दिया । क्या मीडिया ने कहा था कि अन्ना को हीं सिविल सोसायटी का एकमात्र प्रतिनीधि  माने ? या यह  सिर्फ़ सरकार की सभी एन जी ओ को तुष्ट करने की सोच का प्रतिबिंब था । उससे भी बढकर सरकार द्वारा नामित सभी प्रतिनिधि कांग्रेस के थें और यह व्यापक होने की जगह कांग्रेस वनाम टीम अन्ना बनकर रह गया । अब आगे राजदीप कहता है कि अगर ९ अप्रील  एक बुरी  गलती थी तो ५ जून को रामदेव की गिरफ़्तारी एक भयानक भूल । चार मंत्रियों के द्वारा एक राष्ट्राध्यक्ष जैसा स्वागत और उसके मात्र ७२ घंटे बाद अर्धरात्री को रामदेव के अनशन को समाप्त करने की पुलिसिया कारर्वाई से  सरकार की बदनामी हुई ।
 
(इस कार्रवाई ने रामदेव की पोल खोल दी और आज रामदेव का चरित्र संदिग्ध हो चुका है । उनकी लोकप्रियता कम हुई है , लेकिन राजदीप यह सब नहीं बोलेगा क्योंकि अभी भी यह बिकी हुई मीडिया वाले प्रयासरत हैं कि एक बार फ़िर अराजकता फ़ैलायें )
 
अब राजदीप लिखता है कि तिसरा और शायद गंभीर भूल १६ अगस्त को अन्ना को अनशन स्थल जाने से रोकना और उनकी गिरफ़्तारी थी जब वह अपने दुसरे अनशन की तैयारी कर रहे थें । सरकार ने अन्ना को भ्रष्टाचार विरोधी योद्धा से शहीद के रुप में स्थापित करने का कार्य किया । हज़ारे के अप्रील वाले अनशन के दौरान एक बडा सा भारत माता का पोस्टर लगा था तथा रामदेव मंच पर थें और रवि शंकर के समर्थक मुखर समर्थन प्रदान कर रहे थें लेकिन अगस्त में , जब ह्ज़ारे ने रामलीला मैदान में अनशन किया तो भारत माता के पोस्टर की जगह , गांधी का पोस्टर था , रामदेव गायब हो चुके थें और श्री श्री की उपस्थिति दूर से थी ।



(यह बताने में राजदीप को शर्म लग रही है कि अन्ना की भीड जो मात्र पाच हज़ार थी, उसे लाख की भीड मीडिया और राजदीप जैसे बिकाउ पत्रकारो ने बताया । एक बार भी यह बात नही बताइ गई कि अन्ना के समर्थन में विभिन्न जगहों पर छद्दम नाम से मोर्चा गठन करके आर एस एस , विश्व हिंदु परिषद और बजरंग दल वाले आंदोलन को हवा दे रहे हैं , तथा भारत माता के पोस्टर को हटाने का कारण अल्पसंख्यको लुभाना था । )
आगे राजदीप लिखता है कि गिरफ़्तारी ने लोगों को सडक पर उतर जाने के लिये बाध्य किया यह विरोध न तो लोकपाल के लिये था, न भ्रष्टाचार विरोधी कानून के लिये जिसके बारे में आम भारतीय बहुत कम जानते थें , बल्कि जिद्दी और भ्रष्ट व्यवस्था के प्रति आमलोगो की भावनाओं की अभिव्यक्ति थी । हज़ारे का स्वयंघोषित फ़कीर वाला व्यक्तित्व आक्रोशित , अनाम आवाम के लिये प्रतीक बन गया । मैं अन्ना हूं वाली टोपी तथा शर्ट की बिक्री ने आंदोलन को एक व्यक्तित्व के रुप में बदल दिया । रालेगांव सिद्धि के एक पर्यायवरणविद से रामलीला मैदान तक की लोक नायक की यात्रा पुरी हो चुकी थी । हज़ारे कि विजय तब पूर्ण होती दिखी जब उनके अनशन को समाप्त करने के लिये जल्दबाजी में लोकपाल से संबंधित संसद में एक प्रस्तावसंसद की भावना “( सेंस आफ़ हाउस ) पास किया गया । अब यह प्रश्न फ़िर उठ्ता है कि क्या मीडिया ने सरकार को बाध्य किया अन्ना की गिरफ़्तारी के लिये या यह  एक  भयग्रसित प्रशासन द्वारा उठाया गया एक अतार्किक कदम था । अंत में राजदीप लिखता है कि दोनो, सरकार और अन्ना ने संदेश के माध्यम (मीडिया ) को गलत अर्थ में लिया । अन्ना टीम ने उन्मादी न्यूज रिपोर्ट को अपना मुख्य हथियार बनाया यह भुलते हुये कि प्रजातांत्रिक राजनीति एक बार बार दिखाये जानेवाला टीवी सिरियल नही है बल्कि विचार विमर्श की एक तकलीफ़देह प्रक्रिया है ।

 सरकार यह पहचान करने में असफ़ल हो गई कि गुंजती हुई जोरदार आवाज मीडिया के वातवरण का एक हिस्सा जिसमे ३५० से ज्यादा चैनेल तथा ओबी भान शामिल हैं । मीडिया समस्याओं को उठाने का माध्यम भर है न सिर्फ़ अन्ना का बल्कि अनेको विरोधी आंदोलनो का । एक मजबूत नेता आवाज की लय में नही बहेगा , एक समझदार सिविल समाज कैमरा की लेंस से इतर आंदोलन  को वैध बनायेगा ।

 
(राजदीप ने प्रयास तो किया है कि जनता द्वारा नकार दी गई मीडिया को महिमांडित करने का लेकिन आदत तो बिकाउ है इसलिये सच तो लिख हीं नही सकता । यह मीडिया थी जिसने एक तरफ़ा रिपोर्टिंग की ।उसी दिल्ली में अन्ना के आंदोलन के खिलाफ़ दलित वर्ग की ्रैली निकली जिसे कवर नहीं किया मीडिया ने और न हीं  कभी  अन्ना ग्रुप की असलियत को  दिखाया और उन्हें मसीहा के रुप में स्थापित करने का प्रयास किया । मीडिया को पता था, हर शहर , प्रखंड  में न्यूज चैनलों के रिपोर्टर हैं , कौन लोग अन्ना के आंदोलन के पीछे हैं, क्या दलित, गरीब, पिछडे और अल्पसंख्यको का समर्थन है ? यह पता रहते हुये मीडिया ने नही  दिखाया । मिस्त्र के सता परिवर्तन को क्रांति बतानेवाली मीडिया , विदेश और अमेरिका के पैसे के कारण भारत में भी मिस्त्र जैसी अराजकता पैदा करना चाहती थी । देश का ढांचा , समाजवादियों द्वारा सशक्त ढंग से अन्ना के विरोध ने देश को अराजक स्थिति का सामना करने से बचा लिया । वस्तुत: मीडिया ने देशविरोधी रवैया अपनाया और देश को संकट में डालने का कार्य किया । )
 वैकल्पिक मीडिया यानी नेट के माध्यम से कार्यरत न्यूज पोर्टल्स जिसमे बिहार मीडिया सबसे अग्रणी रहा है , ने सच को सामने लाने का काम किया । अप्रील में जब सारे दलाल मीडिया अन्ना के लोकपाल और अनशन के गुणगान में लगे थें , हम बता रहे थें कैसे खतरनाक है यह बिल, यह भी बताया था हमने की अन्ना का अनशन एक ड्रामा है तथा आर एस एस के सहयोग से चल रहा है । यह भी हमने बताया है कि सीआईए का हाथ है अन्ना के अनशन में और फ़ोर्ड फ़ाउंडेशन जो सीआईए की कवर एजेंसी है, उसके माध्यम से अरविंद और मनीष की संस्था कबीर को करोडो रुपये भारत , श्रीलंका तथा नेपाल में पारदर्शी सरकार की स्थापना के लिये मिले । अभी बहुत कुछ आना बाकी है । अभी नारायन मूर्ति की भूमिका की भी जांच बाकी है । अगले राष्ट्रपति के लिये दावेदारी पक्की कर रहे हैं नारायन मूर्ति ।


Those who live by the media are often slain by it. At the 2011 CNN-IBN Indian of  the Year awards, Anna Hazare candidly admitted that it was the media which was responsible for his rise from a regional figure in Maharashtra into a national icon. "If your cameras had not followed me

everywhere, who would know me?" was the activist's honest response.

Today, the same media reports on Hazare's flop show in Mumbai, on how an anti-corruption stir has become an anti-Congress agitation and how Hazare's fasts amount to coercive blackmail. Last week, Mani Shankar Aiyar, the ruling class's last iconoclast, referred to Anna as a "Frankenstein monster",  mirroring the views of several politicians who are convinced that Hazare is a media creation threatening parliamentary democracy. But was the media hype really responsible for Hazare's larger-than-life image?

There is little doubt that over the last nine months, Hazare's advisers used the media quite brilliantly. Prime time press conferences, made for TV spectacles, social networking campaigns: Hazare did benefit from saturated media coverage. Yes, some of  it was high-pitched, and yes, some journalists did become Hazare's cheerleaders. But to see Hazare as purely a media phenomenon would be a misreading of the mood on the street. Crowds were attracted to Hazare not because the TV cameras were there, but because he appeared the antithesis of  a morally bankrupt political leadership beset with a series of scams.

Rewind to April when Hazare first descended on the national capital. Just before the first fast in Jantar Mantar, Hazare addressed a press conference at the Press Club. The attendance was thin, and Anna remained at best an object of curiosity for the national media. Yet, even before the fast could really take off, Union minister Sharad Pawar resigned from the group of  ministers on the lokpal, thereby almost vindicating Hazare's claim that a "corrupt" Pawar could not be on an anti-corruption law panel. Two days later, Hazare's cause was further bolstered when the government issued a formal notification in the official gazette, setting up a joint drafting committee that would discuss and draft a strong Lokpal Bill. The members of  the committee would be a 50-50 divide of  government ministers and a unique concept called 'Team Anna'.



If  April 9 was a bad mistake, what followed on June 5 was another blunder. The Delhi police's midnight crackdown to end Baba Ramdev's fast against black money came barely 72 hours after four senior ministers had rushed to the airport to receive the yoga guru. Treating Ramdev almost like a visiting head of State one moment, then as a criminal the very next, was a flip-flop of the worst kind that further discredited the government.





Till April 9, Hazare was just another voice in the ongoing debate over an anti-corruption law. The singular act of agreeing to formally negotiate with his appointees on the lokpal automatically legitimised him and his 'team' as the sole spokespersons for 'civil society'. Suddenly, respected figures like Aruna Roy, Jaiprakash Narayan (of Loksatta) and a number of anti-corruption activists who had also worked hard on the lokpal legislation were confined to the margins. Did the media ask the government to make Team Anna the exclusive interlocutors of civil society, or was this a reflection of a government mindset eager to appease all shades of  NGOs and their fellow-travellers? To compound the political error, all nominees on the government side were Congress ministers, effectively making the negotiations a Congress versus Team Anna exercise rather than a wider, more inclusive process.



The third, and perhaps the most serious, error came on August 16 when the Delhi police arrested Hazare as he prepared for a second fast. By first denying him access to the fast venue, and then sending him to judicial custody, the government ensured Hazare's transformation from anti-corruption crusader to martyred messiah. During Hazare's fast in April, a huge Bharat Mata poster had formed the backdrop, with Baba Ramdev sharing stage space and Art of Living guru Sri Sri Ravi Shankar's supporters providing vocal support. By August, when Hazare fasted at Ramlila Maidan, the Bharat Mata poster had been replaced by a portrait of Mahatma Gandhi, Ramdev had disappeared, and even Sri Sri was a peripheral presence.



Moreover, the arrest provided the trigger for thousands to take to the streets: this was no longer about a lokpal or an anti-corruption law which most Indians knew little about, but an expression of  general disaffection with a system that was seen to be arrogant and corrupt. Hazare, as the self-sacrificing 'fakir' like figure was the perfect mascot for the angry, anonymous Indian. The 'I am Anna' caps and T-shirts on sale marked the complete 'personalisation' of the movement: the journey from an environmentalist at Ralegan Siddhi to folk hero at Ram Lila was done. Hazare's triumph appeared complete when Parliament, in a desperate bid to end his fast, passed a hurried 'sense of  the House' resolution on the Lokpal Bill. So again the question: did the media push the government to arrest Hazare, or was this also the irrational act of an establishment in panic mode?

In the end, both the State and Team Anna mistook the medium for the message. Team Anna saw the frenzied coverage as its main weapon, forgetting that democratic politics is not a repetitive television serial, but a tortuous process of negotiation and conciliation. The State, on the other hand, failed to recognise that cacophony will be part of a media environment in which there are more than 350 news channels and several hundred OB vans across India. The media will be a loudspeaker of grievances, not just of Team Anna, but of many other protest movements in the future. Strong leaders will not be swayed by the noise, a wise civil society will seek legitimacy beyond the camera lens.

Rajdeep Sardesai is editor-in-chief, IBN 18 Network. The views expressed by the author are personal.


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