अंबेदकर का कार्टून : दलित नेताओं का बौद्धिक दिवालियापन


अंबेदकर का कार्टून : दलित नेताओं का बौद्धिक  दिवालियापन








आज लोकसभा में अंबेदकर के एक कार्टून पर भारी विवाद पैदा हो गया । कांग्रेस के सामंती दलित  नेता पुनिया ने कपिल सिब्बल का कडा विरोध किया । उनका कहना था कि किताब के प्रकाशक एन सी ई आर टी को पत्र लिखने के बावजूद भी अंबेदकर के उस कार्टून को पुस्तक से नही निकाला गया । एकबार भी किसी ने यह बताना आवश्यक नही समझा कि वाकई मामला क्या है और वह कौन सा कार्टून है जिसको लेकर तथाकथित दलित भगवान लोग इतने खफ़ा हैं ।





यह कार्टून 1960  में प्रकाशित हुआ था । का्र्टूनिस्ट शंकर के बनाये हुये इस कार्टून में बाबा साहब अंबेदकर को एक घोघा पर बैठकर उसे हांकते हुये दिखाया गया है तथा उनके सामने देश की जनता को इंतजार करते हुये खडा दिखाया गया है । अंबेदकर के पिछे जवाहर लाल नेहरु चांबुक लेकर अंबेदकर पर बरसा रहे हैं ताकि अंबेदकर संविधान निर्माण की रफ़्तार बढायें । यह कार्टून संविधान बनने में लग गये तीन वर्ष  की देर पर एक व्यंग हैं । आज जब अंबेदकरवादियों ने इसका विरोध किया तब यह प्रसांगिक हो गया । सरकार ने इसे हटाने का आदेश जारी कर दिया और इस आदेश से इसकी प्रसांगिकता तथा महत्व और बढ गया । अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हमारे संविधान द्वारा प्रदत है । मात्र एक कार्टून जो संविधान के निर्माण में हुई देर पर एक व्यंग है , उसे हटाने की मांग करना तथा हटाने का आदेश देना बाबा साहब का अपमान है । इस तरह की मांग बौद्धिक रुप से दिवालिया व्यक्ति हीं कर सकता है । कार्टून व्यंग की एक विधा है । संविधान में दी गई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रावधान का श्रेय बाबा साहब को भी जाता है । कार्टून को हटाने की मांग करना या हटाना संविधान प्रदत अभिव्यक्ति की आजादी का हनन है । बिहार मीडिया इस तरह के पाखंड के हमेशा खिलाफ़ रहा है । हम यहां उस कार्टून को दे रहे हैं तथा पुस्तक के उस भाग का लिंक  ( Page 18 ) . भी दे रहे है जिसमें कार्टून छपा है । अंबेदकर को मात्र एक दलित समझनेवाले नेताओं ने इस कार्टून पर जो हाय तौबा मचाई वह उनके मानसिक दिवालियापन को दर्शाता है । उनका कार्टून को देखने  का नजरिया जातिवादी है । कार्टून के  नेहरु एक जात नहीं बल्कि देश के प्रधानमंत्री हैं और अंबेदकर भी जात नहीं एक ऐसे व्यक्ति हैं जिसे संविधान निर्माण की जिम्मेवारी सौपीं गई है । पी एल पुनिया जैसे नेता दलित नहीं है । सामंतवादी और जातिवादी हैं । दलित नेताओं को न सिर्फ़ अपने नजरिये में बदलाव लाने की जरुरत है बल्कि जातिवाद से उपर उठकर दलित को एक वर्ग के रुप में स्थापित करने की भी  जरुरत है । यह दुर्भाग्य है कि दलित वर्ग भी जाति में विभाजित है । यह विभाजन बहुत गहरा है । डोम की बेटी से दुसाध जाति का कोई लडका शादी नही करता । चमार और मेहतर के बीच शादी - ब्याह का संबंध नहीं स्थापित होता है । पहले स्वंय में सुधार करें दलित नेता उसके बाद इस तरह की फ़ालतू मुद्दों पर विवाद खडा करें । एक और बात यह भी भुल जायें की अंबेदकर दलित थें । अंबेदकर की कद्र और पहचान संविधान निर्माता के रुप में है न कि दलित के रुप में । उन्हें दलित के दायरे में बांधकर  उनके कद को छोटा न करें ।

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Comments

  1. वाह भाई वाह । बहुत ही बढिया ।
    संविधान के निर्माता को दलित कहना गाली समान ही है ।

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