जान अब्राहम कानून से उपर है

जान अब्राहम कानून से उपर है
आज टीवी का हाई वोल्टेज ड्रामा था फ़िल्म अभिनेता जान अब्राहम की अपील का सेशन जज के यहां से खारिज होना, समर्पण के लिये न्यायालय द्वारा वक्त न देना, पुलिस द्वारा हिरासत मे ले लेना और भगवान के रुप में मुंबई उच्च न्यायालय के एक जज आर सी चव्हाण द्वारा अपील मंजूर करते हुये जमानत देना । सभी टीवी चैनल इस समाचार को बारबार दिखा रहे थें , मुझे लगता है आर सी चव्हाण उच्च न्यायालय के जज ने भी शायद इसे देखा होगा । उन्हें शर्मिंदगी महसूस हुई या नही , वही बता सकते हैं । नियमत: जब अपील खारिज कर दी जाती है और समर्पण के लिये समय नही दिया जाता है तो वैसी स्थिति में बगैर जेल जाये तथा सरेंडर प्रमाणपत्र लिये , उच्चतम न्यायालय में सुनवाई नही होती । जिस तरह फ़टाफ़ट सबकुछ हो गया, वह न्यायालय के लिये शर्मिंदगी का कारण है , एक भी दुसरा उदाहरण जो किसी आम आदमी से संबंधित हो, न्यायालय नही दे सकता है । देश की न्यायापालिका पक्षपातपूर्ण काम करती है , यह अनेको मामलों में देखने को आया है । वस्तुत: न्यायपालिका तानाशाह की तरह कार्य कर रही है । सामान्यत: कम सजा वाले मामले में अपील का निपटारा अपील के एडमीशन होने के समय हीं कर दिया जाता है । पन्द्रह दिनएक महीने की सजा वालों मामलों में न्यायपालिका अपील को खारिज करने का काम करती रही है । लेकिन यह मामला जान अब्राहम का था । वैसे भी जान अब्राहम को राहत तो निचली अदालत ने हीं दे दी थी, मात्र पन्द्रह दिन की सजा देकर और वह उचित था क्योंकि जान अब्राहम ने घायल लोगों को अस्पताल ले जाने का काम किया था । वैसे जान अब्राहम ने अपील की था या रिवीजन यह भी स्पष्ट नही है । उच्च न्यायालय को यह अधिकार है कि अगर जानबूझकर अपराध न किया गया हो तथा सजा सात वर्ष से कम है तो उसे प्रोबेशन पर या अगर दो साल से कम सजा के प्रावधान की स्थिति में चेतावनी देते हुये रिहा कर सकता है लेकिन दुर्भाग्य है कि हमारे देश की न्यायपालिका इस प्रावधान का कभी उपयोग नही करती है । खैर आज जो कुछ उच्च न्यायालय मुंबई ने किया वह निश्चित रुप से शर्मिंदगी योग्य था किसी आम आदमी का मामला होता तो किसी भी हालत में ऐसा नही हो सकता था । आज तक हुआ भी नही है ।



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