दो कवितायें

अबूझ रिश्ते:
क्या खोया क्या पाया यह कभी न समझ मे
आया ।

बनते रिश्ते टूटते रिश्ते रिश्तो का यह खेल अजीब ।
जब जब जिसको चाहा मैंने काहें उसको न पाया ।

अबूझ पहेली जीवन की मै नादा कभी समझ न पाया ।
माता तूने कैसा यह अनयाय किया
काहें को फिर दुनिया में मेरा तूने  निर्माण किया ।

कुछ को त्यागा मैंने कुछ ने मेरा त्याग किया ।
दोनों ने बस अपने अपने संबंधो का निर्वाह किया ।।

हम भारत के लोग :

तेज रफ़्तार से आती गाडी छोटा सा वह पिल्ला ।
उसके सर पे चढ़कर गुजरती यही है उसकी नियति
कहाँ जुदा है इंसान की किस्मत उस बदकिस्मत पिल्लै से
बीमारों का इलाज है मुश्किल जेब में नहीं है पैसा
फुटपाथो पर मरना यही है उनकी नियति
भले खड़ा हो सामने महंगा आरोग्यशाला
यह कैसा इन्साफ यह कैसी सरकारें
पैसा नही तो मर जाते है " हम भारत के लोग "।
काश चिता में जला पाते हम भारत का संविधान ।

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