सरोज सिंह एक संवेदनशील महिला हैं । फ़ेसबुक पर फ़्रेंड लिस्ट में हैं । एक अनुभव उन्होनें बयां किया , उसे मैं यहां साझा कर रहा हूं । सरोज सिंह का अपना ब्लाग भी है जहां वे अपनी भावनाओं का इजहार कविता के माध्यम से करती हैं । http://saroj-aagatkasawagat.blogspot.com/
आज शाम इवनिंग वाक् करते दुर्गापूरा(जयपुर)वाली सड़क पर निकल गई वहां देखा मैंने मेट्रो निर्माण में लगे उन दिहाड़ी मजदूरों को शाम के धुंधलके ठिठुरते ठण्ड में सड़क किनारे पास पड़े पुराने टायर ट्यूब ,रद्दी गत्ते बटोर कर आग तापते हुए, दिनभर की मजूरी से थके लोग अपनी थकान को उस आग के तपन में झोकते हुए... उनमे से फिर कोई एक बीडी निकलता है और उस अलाव से सुलगा कर एक कश खीच कर दुसरे को बढा देता है, एक बीडी साझा करते और अपने फ़िक्र का धुआं बाहर निकालते..कैसा तो सकून देखा मैंने उने चेहरे पर ...एक कश भीतर और धुएं में सारा दर्द बाहर और चेहरे पर चमक उनमे से एक गीत गुनगुनाता है .........................!
"महँगी के मारे बिरहा बिसरिगा,भूली गई कजरी कबीर
मुला देसवा होई गवा सुखारी ,हम भिखारी रही गए "
और बाक़ी सब भी उसका साथ देते गाने लगते हैं ................!
महंगाई के मारे बिरहा बिसरिगा,भूली गई कजरी कबीर
देखी के गोरिया के उमडल जोबनवा.उठे ना करेजवा मा पीर"
और सभी के चेहरे पर एक सुकुन भरी मुस्कान है .....एक अजीब सा एहसास हुआ कुछ जलन भी हुई ऐसा सकून हमें क्यूँ नहीं मिलता .....काश वो सुकुन भरा कश खीचने गुस्ताखी कर अपनी फ़िक्र मैं भी उनकी मानिंद हवा में उड़ा पाती ,पर क्या वो सकून मेरे चेहरे पर आ पायेगा?...शायद नहीं ...मैंने दिनभर बदनतोड़ मेहनत जो नहीं की है!!
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