अन्ना की हरकत बचकानी और मांग तानाशाही है


अन्ना की हरकत बचकानी और मांग तानाशाही है

अन्ना लोकपाल का अर्थ प्रजातांत्रिक व्यवस्था का खात्मा

पूंजीवाद को बचाये रखने का षडयंत्र है अन्ना चौकडी का आंदोलन

भ्रष्टाचार का खात्मा  व्यवस्था परिवर्तन से होगा

संपति की सीमा निर्धारित हो

लोकपाल ना के प्राधिकरण की स्थापना के बाद भ्रष्टाचार कम होने की बात एक कल्पना मात्र है । पूर्व से हीं देश में सशक्त न्यायिक व्यवस्था, प्रशासनिक ढांचा, ग्राम स्तर तक स्थानीय निकाय जैसे संस्थान हैं लेकिन समय के साथ भ्रष्टाचार मजबुत हुआ है । अन्ना का या सरकार का लोकपाल एक ग्यारह सदस्यीय संस्था होगी जिसके नियंत्रण में विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका सभी आयेंगें। मजेदार बात यह है कि इस संस्था के सदस्यों का  चुनाव एक कमेटी करेगी जिसके सदस्य वे लोग होंगे जिनके खिलाफ़ भ्रष्टाचार की जांच करने का अधिकार लोकपाल को होगा। यह सबसे बडा विरोधाभाष है ।

पाकिस्तान या अन्य मुल्कों से भारत की शासन प्रणाली अलग है । यहां कानून के निर्माण की जिम्मेवारी विधायिका के उपर , उसका पालन सुनिश्चित करवाने का जिम्मा कार्यपालिका का और यह देखने का कि कानून के तहत काम हो रहा है नही कि जिम्मेवारी न्यायपालिका की है । अन्ना ब्रांड इन  तीनो में से दो , न्यायपालिका और कार्यपालिका के कार्यों का जिम्मा  लोकपाल को देना चाहते हैं । तर्क बहुत पेचीदा प्रस्तुत करती है अन्ना टीम । उनका कहना है कि जांच का कार्य  अगर लोकपाल के अधिन नहीं होगा तो लोकपाल मात्र एक दिखावे का प्राधिकार बनकर रह जायेगा।

सीबीआई से लेकर सीवीसी तक की निगरानी और नियंत्रण लोकपाल करेगा यानी ग्यारह लोगों का एक ग्रुप करेगा।

लाखो लोगों के मत से यानी वोट से चुनकर आनेवाले सांसदो के द्वारा चुना हुआ प्रधानमंत्री इस ग्यारह आदमियों के इशारे पर काम करने के लिये बाध्य होगा।

विभिन्न तरह की परीक्षा देकर , पाच से सात साल तक पढकर आनेवाले  न्यायिक अधिकारी को फ़ैसले के पहले सोचना पडेगा , कहीं अन्ना चाचा के लोकपाल को उनका फ़ैसला बुरा न लगे ।

लोकपाल के चयन लिए बननेवाली चयन समिति में अन्तराष्ट्रीय पुरुस्कार प्राप्त लोगो को रखने की मांग भी अन्ना कर रहे हैं। राष्ट्रीय पुरुस्कार प्राप्त व्यक्ति नही, अन्तरराष्ट्रीय पुरुस्कार प्राप्त व्यक्ति । अन्तरराष्ट्रीय पुरुस्कार हमेशा विवादास्पद रहे हैं यहा तक की नोबल पुरुस्कार भी । गांधी नोबल पुरुस्कार के योग्य नही थें क्योंकि उनके हाथ की लाठी हिंसा की प्रतीक थी लेकिन गद्दाफ़ी की निर्मम हत्या पर यह कहने वाला कि गद्दाफ़ी उसी लायक था,  को नोबल का शांति पुरुस्कार मिलता है ।

अभीतक अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध पुरुस्कारों के लिये चयन किये गये व्यक्तियों के अध्ययन से यह तो साबित हो चुका है कि अधिकांश पुरुस्कार पश्चिम  के मुल्कों की पसंदवाले और उनके हितों की रक्षा करनेवालों को दिये जाते हैं । अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध एक भी पुरुस्कार साम्यवादी या समाजवादी विचारधारा के व्यक्ति को नही मिला है । अन्ना का अपना न तो कोई विचार है और न हीं समझ । अन्ना मात्र नाम का भुखा हुआ एक आदमी है ।  देश में जब भ्रष्टाचार के खिलाफ़ आक्रोश हो और उस आक्रोश को चंद लोग जिन्हें विदेशों से भारी रकम मिलती है  एक कानून बनाने के लिये मोडने  का प्रयास कर रहे हैं इसका क्या अर्थ है ? पर्दे के पिछे वह कौन सी ताकत है और उसका उद्देश्य क्या है ?

अन्ना का आंदोलन की बजाय इसे चार चौकडी का आंदोलन कहना ज्यादा उचित है ।

इन अन्ना चौकडी के आंदोलन को समझने के लिये विश्व के घटनाक्रम की जानकारी जरुरी है । आज से दो साल पहले हीं जब ब्राजील दिवालिया होने के कगार पर जा पहुंचा तो यह अंदाजा सबको हो गया था कि आनेवाला समय पूंजीवाद के लिये खतरनाक है ।

दुनिया के विभिन्न मुल्कों में कट्टरपंथी विद्रोह को क्रांति का नाम देकर पश्चिम मीडिया ने प्रचारित करना शुरु कर दिया । इराक से लेकर मिस्त्र , लिबिया सिरिया इसके उदाहरण है । इसके पिछे उद्देश्य मात्र वास्तविक समस्या से लोगों का ध्यान मोड देना ताकि पूंजीवाद के खिलाफ़ कोई जनाक्रोश न भडके पश्चिमी मुल्कों में भी पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ़ जनाक्रोश फ़ैलने लगा , यह खतरे की घंटी थी पूंजीवाद के लिये । भारत में पूंजीवादी व्यवस्था के आने के बाद आर्थिक असमानता और महंगाई बढी थी । पूंजीवाद को बचाने का एकमात्र रास्ता था जनआक्रोश को असली मुद्दे से मोडना और उसी की कडी है अन्ना चौकडी का यह आंदोलन ।

भ्रष्टाचार के खिलाफ़ कानूनों की कमी नही है लेकिन उनका पालन सुचारु रुप से नही हो पा रहा है । खामी तंत्र में है और तंत्र व्यवस्था की देन है । किसी भी शासन प्रणाली की सफ़लता के लिए पारदर्शिता आवश्यक  तत्व है , जिसका हमारे यहां अभाव है ।

व्यवस्था का परिवर्तन हीं एकमात्र विकल्प है । भारत में दो बडे राजनीतिक दल पूंजीवाद के पोषक हैं । कोई अन्य विकल्प इन दोनों के लिए घातक हो सकता था , अन्ना चौकडी भी इन्हीं दलों के स्वार्थ का पोषण करती है । पूंजीवादी व्यवस्था को इससे कोई फ़र्क नहीं पडनेवाला कि भारत में सता कांग्रेस की हो या भाजपा की , हां इन दोनो के अलावा अन्य किसी दल या गठबंधन के सता में आने से पूंजीवाद को खतरा है । यह लोकपाल का ड्रामा मात्र पूंजीवादी व्यवस्था को बनाये रखने की अंतिम कवायद भर है ।

जरुरतमंदों को जमीन देने के लिये भू हदबंदी कानून बनाकर जमीन की एक सीमा निर्धारित कर दी गई , क्या संपति की उपरी सीमा नही निर्धारित हो सकती है ? एक आदमी को कितनी संपति चाहिये जिंदगी को अच्छी तरह गुजारने के लिये ? दस करोड , बीस करोड , पचास करोड , कोई तो सीमा होगी । लेकिन पूंजीवादी व्यवस्था में संपति की हदबंदी नही हो सकती , इसके लिये व्यवस्था परिवर्तन जरुरी है ।

अन्ना चौकडी का आंदोलन  सीआईए के उद्देश्यों को कवर देने का काम करनेवाली सामाजिक संस्थाओं की आर्थिक मदद से चल रहा है । फ़ोर्ड फ़ाउंडेशन भी उन संस्थाओं में से एक है । इन संस्थाओं की संचालन समिति में भी भारतीय औद्योगिक घराने के लोग जो पूंजीवाद के समर्थक हैं , शामिल हैं। फ़ोर्ड की समिति में नारायन मूर्ति भी शामिल हैं अन्ना का आंदोलन वस्तुत: पूंजीवाद को बचाये रखने की एक मुहिम भर है इसलिये कांग्रेस और भाजपा दोनो को अन्ना चौकडी प्यारी है इस आंदोलन से सबसे ज्यादा क्षति भ्रष्टाचार के खिलाफ़ पैदा ह्ये जनाक्रोश को है व्यवस्था परिवर्तन का एक एक विकल्प पैदा होने की संभावना थी लेकिन अन्ना चौकडी का यह आंदोलन उस विकल्प की गर्भ में  हीं मार देना चाहता है हालांकि संभवनाये कभी मरती नहीं रास्ता और स्वरुप भले बदल जाता हो

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Comments

  1. नोबेल वाला मामला अब सुलझ गया है शायद। यह बात हटा ली गई है।

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