बिहार में गुंडे वसुलेंगें गांव में टैक्स
बिहार में गुंडे वसुलेंगें गांव में टैक्स
गाम्व के मकान व दुकान पर लगेगा टैक्स
वैसे तो टैक्स सबसे बडा कारण है भ्रष्टाचार का। भारत की जनता जो व्यय करती है उसका सत्तर प्रतिशत टैक्स के रुप में सरकार के खाते में जाता जिसके कारण संसद सदस्य से पंचायत का मुखिया , चपरासी से लेकर कलक्टर, पेशकार से लेकर जज साहबान तक सभी भ्रष्ट बन चुके हैं। टैक्स फ़्री राष्ट्र बनाने की कभी सोच हीं नही विकसित हुई भारत में। जब राष्ट्रीय स्तर पर इस तरह का कोई प्रयास नही हुआ तो राज्यों के बारे में तो सोचा हीं नही जा सकता है । यह सही है कि राज्य के संचालन के लिये आय जरुरी है , वह आय या तो टैक्स से आये या राज्य द्वारा किये गये व्यवसाय से । राज्य के द्वारा व्यवसाय को तो वैश्विकरण की शुरुआत के समय हीं यह कहकर हत्या कर दी गई कि ्राज्य का काम व्यवसाय करना नही है , यह बात सरकार के अंदर आर्थिक मामलों के जानकारों की नही थी , बल्कि बडे उद्धयोगपतियों की थी। उन्हे प्रतिस्पर्द्धा से भय था और सस्ते श्रम की जरुरत थी । सस्ता श्रम तभी उपलब्ध हो सकता है जब उसके सामने कोई और अवसर न हो । राज्यों के व्यवसाय को बंद कर देने के बाद उन कल कारखानों को निजी हाथों में बेच दिया गया । देश की संपति जो आम जनता की माल्कियत थी, वह टाटा , रिलायंस जैसों को कौडियों के मोल दे दी गई। संअपति के बिकने से हुई आय को भी किसी विशेष कार्य के लिये सुरक्षित नही किया गया , उसे राज्य ने विकास के नाम पर विभिन्न योजनाओं में खर्च कर दिया। मुक्त अर्थव्यवस्था के लागू होने के बाद काले धन में बहुत तेजी से वर्द्धि हुई। सरकारों के पास अब बेचने को बहुत कुछ बचा नही तो टैक्स की बढोतरी शुरु हो गई। अभी खुलेआम भ्रष्टाचार का सबसे बडा केन्द्र पंचायतें हैं, पंचायत स्तर पर भ्रष्टाचार को रोकने का कोई प्रयास नही हुआ। पंचायत में चुनकर अधिकांश गुंडे-लोफ़र हीं आते हैं । उन्हे बस इतना पता है कि एक बार मुखिया बन जायेंगे तो एक –आध करोड तक कमा ले सकते हैं। बिहार में पंचायते भ्रष्टाचार की सबसे बडे केन्द्र के रुप में उभरी हैं। पंचायत स्तर पर एक काम भी ऐसा नही हुआ जिसकी प्रशंसा की जाय । आंगनबाडी केन्द्रों में सेविका, सहायिका की नियुक्ति , पंचायत स्तर पर शिक्षको की नियुक्ति , नरेगा जैसे कार्यक्रम भ्रष्टाचार की भेंट चढ गयें। किसी मुखिया को कुछ नही हुआ । मरने वालों के क्रियाक्र्म के लिये जो पैसा आता है , उसे भी मिलबांटकर खा गयें। आज यह स्थिति है कि सरकारी कर्मचारी मुखिया , पार्षद की बातों को मानने से इंकार करते हैं। कर्मचारियों ने लूट का अंदाज देखा है और उसके सहभागी रहे हैं , उन्हें पता है , गाज उनपर हीं गिरेगी। अभी बिहार की सबसे भ्रष्टतम नीतीश सरकार ने पंचायतों को गांव के मकान और दुकान पर टैक्स लगाने का अधिकार देने का निर्णय लिया है । आजादी के पहले जमींदारी व्यवस्था थी, छोटे जमींदारों का अधिकार क्षेत्र एक बडी पंचायत के बराबर होता था। आज लोकतंत्र का लबादा पहनाकर उसी व्यवस्था को पुन: लागू किया जा रहा है । गांव के लोग अभीतक शांति से जिवन गुजार रहे थें, अब उनको भी भ्रष्ट व्यवस्था ने अपने चंगुल में लेने का फ़ैसला कर लिया । नीतीश के सलाहकार शायद दुनिया के सबसे वाहियात लोग हैं। उनका तर्क है कि पंचायतों के विकास के लिये आय के श्रोत की जरुरत है इसलिये उन्हें कर लगाने का अधिकार जो पंचायती राज व्यवस्था में है , उसे दिया जा रहा है । सबसे खराब कर प्रत्यक्ष कर को माना जाता है । गांव के लोग न सिर्फ़ अप्रत्यक्ष कर देते हैं बल्कि उनकी हीं बदौलत भारत की अर्थव्यवस्था टिकी हुई है , बिहार और उतर प्रदेश का सस्ता श्रम टाटा , अंबानी के साम्राज्य का राज है । अपने राज्य से बाहर जाकर यहां के कुशल और अकुशल श्रमिक कार्य करते हैं , वहां उन्हें न्युनतम मजदूरी भी नही मिलती है और न हीं उनको श्रमिकों के लिये अनिवार्य कटौती का भुगतान किया जाता है । पेंशन, ग्रेच्युटी, जिवन बिमा के नियमों का पालन भी नही किया जाता है । अगर उसकी लडाई सरकार लडती तो आज स्थिति बदली हुई रहती। इसके अलावा राज्यों को अपने निवासियों के बदले रायल्टी भी मिलने का प्रावधान होना चाहिये था , यानी किसी भी उद्योग धंधे में कार्यरत श्रमिक के राज्य को उसके बदले में एक निश्चित प्रतिशत राशि की मांग की जा सकती थी. अगर कुछ भी करने में अक्षम है सरकार तो मात्र दो-तीन माह के लिये सारी विकास योजनाओं को रोक कर , अपने मजदूरों को बुला लो, उन्हें एक तय राशि दो , भारत के सारे उद्योगपति कंगालपति बन जायेंगें। पंचायतों पर लगने वाले कर का विरोध हर स्तर पर होना चाहिये। गांवों को पहले इस योग्य बनाओ की बाहर नही जाना पडे रोजी-रोटी के लिये। वैसे भी एक हीं सामान पर दस जगह कर लगने के कारण , व्यय की गई राशि का सत्तर प्रतिशत कर के रुप में चला जाता है । एक गेंहुं के लिये बीज पर टैक्स , खेत की मालगुजारी, खेत की पटौनी के लिये बिजली का टैक्स या डीजल का टैक्स , गेंहुं पैदा हो जाने के बाद बाजार समिति का टैक्स , उसके बाद राज्य का वाणिज्य कर फ़िर राज्य से बाहर ले जाने पर केन्द्रीय कर । हर स्तर पर टैक्स के बाद जिस गेहुं की लागत ७ से आठ रुपये आती है , वह १४ से २० रुपये में बाजर में बिकता है । कोई अर्थशास्त्री नही है इस मुल्क में जिसकी सोच देशी हो ।
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गाम्व के मकान व दुकान पर लगेगा टैक्स
वैसे तो टैक्स सबसे बडा कारण है भ्रष्टाचार का। भारत की जनता जो व्यय करती है उसका सत्तर प्रतिशत टैक्स के रुप में सरकार के खाते में जाता जिसके कारण संसद सदस्य से पंचायत का मुखिया , चपरासी से लेकर कलक्टर, पेशकार से लेकर जज साहबान तक सभी भ्रष्ट बन चुके हैं। टैक्स फ़्री राष्ट्र बनाने की कभी सोच हीं नही विकसित हुई भारत में। जब राष्ट्रीय स्तर पर इस तरह का कोई प्रयास नही हुआ तो राज्यों के बारे में तो सोचा हीं नही जा सकता है । यह सही है कि राज्य के संचालन के लिये आय जरुरी है , वह आय या तो टैक्स से आये या राज्य द्वारा किये गये व्यवसाय से । राज्य के द्वारा व्यवसाय को तो वैश्विकरण की शुरुआत के समय हीं यह कहकर हत्या कर दी गई कि ्राज्य का काम व्यवसाय करना नही है , यह बात सरकार के अंदर आर्थिक मामलों के जानकारों की नही थी , बल्कि बडे उद्धयोगपतियों की थी। उन्हे प्रतिस्पर्द्धा से भय था और सस्ते श्रम की जरुरत थी । सस्ता श्रम तभी उपलब्ध हो सकता है जब उसके सामने कोई और अवसर न हो । राज्यों के व्यवसाय को बंद कर देने के बाद उन कल कारखानों को निजी हाथों में बेच दिया गया । देश की संपति जो आम जनता की माल्कियत थी, वह टाटा , रिलायंस जैसों को कौडियों के मोल दे दी गई। संअपति के बिकने से हुई आय को भी किसी विशेष कार्य के लिये सुरक्षित नही किया गया , उसे राज्य ने विकास के नाम पर विभिन्न योजनाओं में खर्च कर दिया। मुक्त अर्थव्यवस्था के लागू होने के बाद काले धन में बहुत तेजी से वर्द्धि हुई। सरकारों के पास अब बेचने को बहुत कुछ बचा नही तो टैक्स की बढोतरी शुरु हो गई। अभी खुलेआम भ्रष्टाचार का सबसे बडा केन्द्र पंचायतें हैं, पंचायत स्तर पर भ्रष्टाचार को रोकने का कोई प्रयास नही हुआ। पंचायत में चुनकर अधिकांश गुंडे-लोफ़र हीं आते हैं । उन्हे बस इतना पता है कि एक बार मुखिया बन जायेंगे तो एक –आध करोड तक कमा ले सकते हैं। बिहार में पंचायते भ्रष्टाचार की सबसे बडे केन्द्र के रुप में उभरी हैं। पंचायत स्तर पर एक काम भी ऐसा नही हुआ जिसकी प्रशंसा की जाय । आंगनबाडी केन्द्रों में सेविका, सहायिका की नियुक्ति , पंचायत स्तर पर शिक्षको की नियुक्ति , नरेगा जैसे कार्यक्रम भ्रष्टाचार की भेंट चढ गयें। किसी मुखिया को कुछ नही हुआ । मरने वालों के क्रियाक्र्म के लिये जो पैसा आता है , उसे भी मिलबांटकर खा गयें। आज यह स्थिति है कि सरकारी कर्मचारी मुखिया , पार्षद की बातों को मानने से इंकार करते हैं। कर्मचारियों ने लूट का अंदाज देखा है और उसके सहभागी रहे हैं , उन्हें पता है , गाज उनपर हीं गिरेगी। अभी बिहार की सबसे भ्रष्टतम नीतीश सरकार ने पंचायतों को गांव के मकान और दुकान पर टैक्स लगाने का अधिकार देने का निर्णय लिया है । आजादी के पहले जमींदारी व्यवस्था थी, छोटे जमींदारों का अधिकार क्षेत्र एक बडी पंचायत के बराबर होता था। आज लोकतंत्र का लबादा पहनाकर उसी व्यवस्था को पुन: लागू किया जा रहा है । गांव के लोग अभीतक शांति से जिवन गुजार रहे थें, अब उनको भी भ्रष्ट व्यवस्था ने अपने चंगुल में लेने का फ़ैसला कर लिया । नीतीश के सलाहकार शायद दुनिया के सबसे वाहियात लोग हैं। उनका तर्क है कि पंचायतों के विकास के लिये आय के श्रोत की जरुरत है इसलिये उन्हें कर लगाने का अधिकार जो पंचायती राज व्यवस्था में है , उसे दिया जा रहा है । सबसे खराब कर प्रत्यक्ष कर को माना जाता है । गांव के लोग न सिर्फ़ अप्रत्यक्ष कर देते हैं बल्कि उनकी हीं बदौलत भारत की अर्थव्यवस्था टिकी हुई है , बिहार और उतर प्रदेश का सस्ता श्रम टाटा , अंबानी के साम्राज्य का राज है । अपने राज्य से बाहर जाकर यहां के कुशल और अकुशल श्रमिक कार्य करते हैं , वहां उन्हें न्युनतम मजदूरी भी नही मिलती है और न हीं उनको श्रमिकों के लिये अनिवार्य कटौती का भुगतान किया जाता है । पेंशन, ग्रेच्युटी, जिवन बिमा के नियमों का पालन भी नही किया जाता है । अगर उसकी लडाई सरकार लडती तो आज स्थिति बदली हुई रहती। इसके अलावा राज्यों को अपने निवासियों के बदले रायल्टी भी मिलने का प्रावधान होना चाहिये था , यानी किसी भी उद्योग धंधे में कार्यरत श्रमिक के राज्य को उसके बदले में एक निश्चित प्रतिशत राशि की मांग की जा सकती थी. अगर कुछ भी करने में अक्षम है सरकार तो मात्र दो-तीन माह के लिये सारी विकास योजनाओं को रोक कर , अपने मजदूरों को बुला लो, उन्हें एक तय राशि दो , भारत के सारे उद्योगपति कंगालपति बन जायेंगें। पंचायतों पर लगने वाले कर का विरोध हर स्तर पर होना चाहिये। गांवों को पहले इस योग्य बनाओ की बाहर नही जाना पडे रोजी-रोटी के लिये। वैसे भी एक हीं सामान पर दस जगह कर लगने के कारण , व्यय की गई राशि का सत्तर प्रतिशत कर के रुप में चला जाता है । एक गेंहुं के लिये बीज पर टैक्स , खेत की मालगुजारी, खेत की पटौनी के लिये बिजली का टैक्स या डीजल का टैक्स , गेंहुं पैदा हो जाने के बाद बाजार समिति का टैक्स , उसके बाद राज्य का वाणिज्य कर फ़िर राज्य से बाहर ले जाने पर केन्द्रीय कर । हर स्तर पर टैक्स के बाद जिस गेहुं की लागत ७ से आठ रुपये आती है , वह १४ से २० रुपये में बाजर में बिकता है । कोई अर्थशास्त्री नही है इस मुल्क में जिसकी सोच देशी हो ।
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