पूंजीवाद का समर्थक और समाजवाद का विरोधी है अन्ना का आंदोलन
पूंजीवाद का समर्थक और समाजवाद का विरोधी है अन्ना का आंदोलन
मनीष सिसोदिया –अरविंद केजरीवाल और सरकार , दोनो का लोकपाल बिल कोई बदलाव नही लायेगा
जनलोकपाल बिल जिसे अब अन्ना हज़ारे का लोकपल बिल कहा जा रहा है वस्तुत: मनीष सिसोदिया और अरविंद केजरीवाल नामक दो आदमियों के दिमाग की उपज है । अन्ना सिर्फ़ उस बिल के समर्थन में खडे एक ब्रांड एमबेस्टर की तरह है जैसे जे पी सिमेंट के प्रचारक अमिताभ बच्चन ।
देश की सबसे बडी समस्या भ्रष्टाचार नही है । समस्या है अमीर और गरीब के बीच की खाई। इस खाई का कोई संबंध भ्रष्टाचार से नही है । भ्रष्टाचार की समाप्ति के बाद भी यह समस्या ज्यों की त्यों रहेगी। यह समस्या देन है पुंजीवादी व्यवस्था की। पुंजीवादी व्यवस्था जहां भी रहेगी भ्रष्टाचार हीं पैदा करेगी । पुंजीवादी व्यवस्था का अर्थ है , पैसे से पैसे कमाना और इसके लिये होड लगेगी , कौन कितनी जल्दी , कम पैसा लगाकर ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाता है , वहीं से शुरुआत होगी भ्रष्टाचार की । ज्यादा पैसा कमाने के लिये सरकारी नीतियों का फ़ायदा उठाया जायेगा । नीतियों में शिथिलता लाने या अपने मनोकुल बनाने का प्रयास होगा , अभी टूजी घोटाला और बिहार के बियाडा घोटाले में वही हुआ ।
लोकपाल बिल मात्र एक कानून है जो अभी मौजूद व्यवस्था के अतिरिक्त एक और व्यवस्था पैदा करेगा जहां भ्रष्टाचार से पीडीत लोग अपनी शिकायत दर्ज करायेंगें। आज भी शिकायत दर्ज कराने के लिये बहुत सारे संस्थान है । सीबीआई, विजिलेंस, कैट, सतर्कता आयोग, मानवाधिकार आयोग, थाना और न्यायालय । शिकायत दर्ज होती है, कार्रवाई भी होती है , जेल से लेकर सजा तक होता है लेकिन भ्रष्टाचार कम होने की जगह बढता हीं जा रहा है ।
जनलोकपाल बिल चाहता है कि चपरासी से लेकर प्रधानमंत्री स्तर तक के भ्रष्टाचार की जांच उसके जिम्मे हो । सरकार का लोकपाल बिल कहता है बडे पदो पर बैठे अधिकारियों के भ्रष्टाचार की जांच लोकपल करे , प्रधानमंत्री उसके दायरे में न हो, संसद उसके दायरे में न हो, उच्च न्यायपालिका उसके दायरे में न हो।
दोनो का कथन गलत है । अभी जो व्यवस्था है , उसके अनुसार अगर कोई सांसद भ्रष्टाचार में लिप्त है तो उसके खिलाफ़ कार्रवाई हो सकती है । संसद के अंदर अगर कोई भ्रष्टाचार हुआ है तो मुकदमा दर्ज किया जा सकता है । हां संसद में हो रही कार्यवाही की जांच नही कि जा सकती है । समझने के लिये एक उदाहरण देता हूं , संसद में वोट के बदले नोट कांड हुआ था जिसमें बीजेपी ने सांसदों की खरीद – फ़रोख्ता का मामला उठाया था और संसद में नोट भी प्रस्तुत किये गये थें, आज उसकी जांच दिल्ली पुलिस कर रही है । प्रधानमंत्री भी अगर कोई अपराध करता है तो उसकी जांच होती है , बाबरी मस्जिद गिराने के मामले मे नरसिंहा राव के खिलाफ़ कार्रवाई हुई थी।
न्यायाधिश के खिलाफ़ मुकदमा नही दर्ज किया जा सकता है ऐसा लोगों का मानना है लेकिन कानून कहता है कि न्यायाधिश जो भी फ़ैसला देंगें गुड फ़ेथ में देंगें और अगर फ़ैसला गुड फ़ेथ में नही दिया गया है , तथा फ़ैसला देने का कारण भ्रष्टाचार है तो उनके उपर मुकदमा होगा , हाम उसके लिये पूर्वानमति की जरुरत है , सरकारी नौकर के खिलाफ़ भी संग्यान लेने के लिये पूर्वानुमति की जरुरती है ।
यह प्रावधान सही है लेकिन इसका दुरुपयोग होता है । अगर पूर्वानुमति का प्रावधान नही होगा तो कोई भी व्यक्ति किसी भी अधिकारी या ्जज के खिलाफ़ मुकदमा दायर करके उस पर दबाव बनाने का प्रयास करेगा। हालांकि गलत मुकदमा करनेवाले पर कार्रवाई का भी प्रवाधान कनून में है , लेकिन प्रक्रिया पेचीदी है इसलिये कोई कार्रवाई नही होती है गलत मुकदमा करनेवाले के विरुद्ध ।
मनीष सिसोदिया का जनलोकपाल बिल चाहता है चपरासी से लेकर प्रधानमंत्री, संसद , उच्च न्याय्पालिका को अपने दायरे में लाना ।
अभी जो न्यायिक व्यवस्था है उसमें विभिन्न स्तर पर जांच तथा मुकदमें की सुनवाई का प्रावधान है । हां मामलों की जांच में सांईटिफ़िक साधनो का प्रयोग नही किया जाता है जिसके कारण निर्दोष भी सजावार ठहरा दिये जाते हैं। लेकिन सभी को अगर जनलोकपाल के दायरे में ला दिया जायेगा तो जांच में और देर होगी । एक नई व्यवस्था बनानी पडेगी , उसके बाद भी यह गारंटी नही है कि उस नई लोकपाल व्यवस्था में भी वर्तमान न्यायिक व्यवस्था कि खामियां नहीं मौजूद होगी।
अब प्रश्न यह उठता है कि जब पूर्व से हीं प्रधानमंत्री, संसद सदस्य, जज और नौकरशाह के खिलाफ़ जांच करने का प्रावधान है तो फ़िर जनलोकपाल के दायरे में इन्हें लाने में क्या दिक्कत है ।
जनलोकपाल में ऐसा कोई प्रावधान नही है जो शिकायतकर्ता को पहले पूरे साक्ष्य प्रस्तुत करने के लिये बाध्य करे। जनलोकपाल के प्रावधान के अनुसार किसी की भी शिकायत पर जांच शुरु करने का अधिकार लोकपाल को होगा। इस प्रावधान का सबसे ज्यादा दुरुपयोग होगा तथा लोकपाल राजनीतिक बदले चुकाने का एक स्थान भर बन कर रह जायेगा ।
आज जो आंदोलन चल रहा है , उससे भी स्पष्ट हो गया है कि जनलोकपाल के प्रवक्ता राजनीति से प्रेरित हैं। देशभर में भाजपा और आर एस एस ने अन्ना के आंदोलन की कमान संभाल ली है । अन्ना के ग्रुप को यह पता है ।
चाहे जनलोकपाल हो या मनमोहन लोकपाल,दोनो मात्र एक नये प्राधिकार भर बनकर रह जायेंगें।भ्रष्टाचार का यह आलम है कि चपरासी से प्रधानमंत्री, कोर्ट के पेशकार से उच्चतम न्यायालय का जज तक भ्रष्ट है । कितने लोकपाल स्थापित होगें। हर जिले में एक ? दो ? दस ? । उन लोकपाल में कार्यकरने वाले कौन होंगें। आज भी अनुमंडल स्तर पर न्यायालय है । क्या बदलाव आया है । जहां जज इमानदार हैं , वहां भी मुकदमों का ढेर है ।
लोकपाल मात्र एक नया प्राधिकार भर बनकर रह जायेगा जो व्यवस्था का एक भ्रष्ट अंग मात्र होगा । खुद भ्रष्ट बन जायेगा लोकपाल ।
अब प्रश्न उठ्ता है कि उपाय क्या है ? क्या इसी तरह जनता भ्रष्टाचार सहती रहे ?
जवाब है नही
देश की आजादी के समय हीं सबसे बडी गलती हुई । सभी राजाओं के राज्य को भारत या पाकिस्तान में विलय करने की स्वतंत्रता थी। विलय भी हुआ। सभी सरकारी विभाग अपने कर्मचारी सहित भारत सरकार का अंग बन गये । लेकिन बडे व्यवसायियों कि संपति का राष्ट्रीयकरण नही हुआ । कारण थें महात्मा गांधी। बिरला और बजाज ने ऐसा नही होने दिया । इसका प्रयास १९४० के पूर्व से हीं शुरु हो गया था । समाजवादी विचारधारा वाले किसी भी नेता को कांग्रेस में पनपने और आगे नही बढने दिया गया । सुभाष चन्द्र बोस इसके उदाहरण हैं।
बाद में जमींदारी उन्मूलन कानून से लेकर भू हदबंदी कानून तक बनाया गया , परन्तु कभी भी संपति हदबंदी कानून नही बना । इसके लिये विचार भी नही हुआ। एक व्यक्ति या परिवार कितनी भूमि रख सकता है यह तो निर्धारित कर दिया गया लेकिन एक व्यक्ति या परिवार कितनी संपति रख सकता है इसका निर्धारण नही हुआ।
पूंजीवाद , साम्यवाद, समाजवाद मुख्यत: यही शासन की प्रणाली हैं।
एक छोटे से उदाहरण के द्वारा इन तीनो के बीच का अंतर समझा जा सकता है ।
अगर किसी व्यक्ति के पास दो गाय है तो पूंजीवाद की व्यवस्था के तहत वह इन गायों दुग्ध , बछडों और गायों के उम्रदराज हो जाने कि स्थिति में इन्हें बेचकर अपनी पूंजी की बढोतरी करेगा ।
अगर वह साम्यवादी व्यवस्था में है तो उसकी गायें सरकार ले लेगी तथा गायों से हुई आमदनी राष्ट्र की आय मानी जायेगी।
अगर वह व्यक्ति समाजवादी है तो वह गायों के दुग्ध को अपने लिये रखकर बाकी अपने पडोसी को दे देगा ।
अमेरिका पूंजीवाद का प्रबल समर्थक है । पूंजीवाद आज दम तोड रहा है । रुस के खात्मे के बाद अमेरिका के समानांतर कोई ताकत नही उभर पाई । अमेरिका की दादागिरी तभी तक है जबतक पूंजीवाद है ।
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अच्छा लगा और शासन की प्रणाली और पूँजीवाद समझ में आए। धन्यवाद।
ReplyDeleteअन्ना आन्दोलन ना तो समाजवाद का विरोध करता है ना ही पूंजीवाद का समर्थन .यह इस देश के लोगो को भ्रस्ताचारियो से मुक्त करने का एक प्रयास है .कृपया अन्ना जी एवं अरविन्द केजरीवाल जी के विचारो को ठीक से समझे फिर कमेन्ट करे |और इस प्रयास को सफल बना कर देश को भ्रस्ताचारियो से मुक्त करे |
ReplyDeleteplz visit : http://www.indiaagainstcorruption.org/