राष्ट्रपति के चुनाव ने बदले गठबंधनों के समीकरण




राष्ट्रपति के चुनाव ने बदले गठबंधनों  के समीकरण

लालु-नीतीश  में कांग्रेस के नजदीकी बनने की होड़

बंगाल में कांग्रेस को मिला सीपीएम का साथ

वाम मोर्चा में भी दरार 

राष्ट्रपति पद के लिए नीलम संजीव रेड्डी तथा वी.वी गिरी के बाद प्रणव मुखर्जी के चुनाव ने सबसे ज्यादा राजनीतिक उबाल पैदा किया है। इसका मूल कारण है प्रणव मुखर्जी का लंबे समय से भारतीय राजनीति के केन्द्र बिंदु में बने रहना। जहां 1969 में राष्ट्रपति पद के लिए हुए चुनाव में राष्ट्रपति पद के कांग्रेस के नामित उम्मीदवार रहते हुए भी इंदिरा गांधी द्वारा अमान्य होने के कारण नीलम संजीव रेड्डी को निर्दलीय उम्मीदवार वी.वी गिरी के हाथों पराजय का सामना करना पड़ा था वहीं 1977 में नीलम संजीव रेड्डी निर्विरोध राष्ट्रपति बने थे । इन दोनों के बाद राष्ट्रपति के चुनाव में सबसे ज्यादा भूचाल इस बार पैदा हुआ हैं। युपीए एवं एनडीए दोनों गठबंधनों में दरार पैदा हो गई है। युपीए में जहां तृणमूल नेत्री ममता बनर्जी ने प्रणव मुखर्जी की उम्मीदवारी का विरोध किया है वहीं एनडीए में शिवसेना एवं बिहार की जदयू ने राष्ट्रपति पद के लिए संगमा को समर्थन देने के अपने गठबंधन के निर्णय को दरकिनार करते हुए प्रणव मुखर्जी को समर्थन देने का निर्णय लिया है। उधर वामदलों में भी बिखराव दिख रहा है ।

सीपीएम जहां प्रणव मुखर्जी के पक्ष में खड़ी है वहीं सीपीआई तथा सीपीआई एम.एल यानी माले ने राष्ट्रपति चुनाव से अलग रहने का फैसला लिया है। ये फैसले उम्मीदवार की योग्यता या अयोग्ता के आधार पर नहीं लिए गए हैं बल्कि अपने-अपने राजनीतिक हितो को ध्यान में रखते हुए लिये गए हैं।

सबसे पहले शुरूआत करते हैं पश्चिम  बंगाल से।

प्रणव मुखर्जी का गृह राज्य है बंगाल। वहां भी कांग्रेस की सहयोगी ममता बनर्जी विरोध में हैं। विरोध का कारण बहुत स्पष्ट है। प्रणव मुखर्जी सक्रिय राजनीति में रहते हुए पश्चिम  बंगाल में कांग्रेस को स्थापित नहीं कर पाये।ममता बनर्जी ने कांग्रेस में रहकर संघर्ष की शुरूआत की और बाद मे  कांग्रेस से अलग होकर अपनी पार्टी बनाई तथा साम्यवादियों के किले को ढाह दिया। हालांकि बंगाल में सता  से बेदखल होने का कारण साम्यवादियों के अंदर आई खामियां भी थी ( बिमान बोस की अपराधियों को संरक्षण देनेवाली गलती का खामियाजा भुगतना पडा ) । ममता की यह जीत उपर से भले कांग्रेस पचाने का दिखावा कर रही हो, कहीं न कहीं खुद सता  में न आ पाने का दर्द तो कांग्रेस को है ही। राष्ट्रपति का  पद कहने को तो निष्पक्ष होता है लेकिन परीक्षा की जब घड़ी आई है तो, चाहे अर्द्धरात्रि में आपातकाल के आदेश पर हस्ताक्षर करने वाले देश  के पांचवें राष्ट्रपति स्व. फखरूद्दीन अली अहमद हो या 2005 में विदेश  यात्रा के दौरान बिहार में राष्ट्रपति शासन लगाने के आदेश  पर हस्ताक्षर करने वाले आम जन मे लोक प्रिय राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम, हमेशा असफल साबित हुए हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि राष्ट्रपति के निष्पक्ष होने की बात सिद्धांत में तो अच्छी लगती है लेकिन यथार्थ में नहीं।
 ममता बनर्जी को यह पुरा अंदेशा है कि राष्ट्रीय राजनीति में रहते हुए बंगाल में कांग्रेस  को सता  में लाने का जो कार्य प्रणव दा नहीं कर पाये उस कार्य को करने का कोई अवसर राष्ट्रपति बनने के बाद भी वह नहीं छोड़ेंगे। वहीं   सीपीएम की नजर आनेवाले लोकसभा चुनाव पर है। कांग्रेस और तृणमूल के बीच बढ़ती दुरी सीपीएम के लिए फायदेमंद है। इधर कुछेक महीनों के अंदर तृणमूल कार्यकर्ता एवं नेताओं द्वारा की जा रही है तोड़-फोड़ एवं हंगामे की हरकत ने ममता बनर्जी की लोकप्रियता को क्षति पहुंचाई है। इनकी हरकतें सीपीएम शासन के बुरे दिनों की याद दिलाती है। अगर कांग्रेस एवं तृणमूल की बढ़ती हुई दुरियां गठबंधन के बिखराव तक पहुंच जाती है तो लोकसभा चुनाव में बंगाल में सीपीएम-कांग्रेस का नया गठबंधन बन सकता है जो प्रणव दा को भी पसंद आयेगा।



अब चर्चा करते हैं बिहार की।

यहां भी जदयू ने या यों कहें नीतीश  कुमार ने एनडीए से दिगर प्रणव मुखर्जी को समर्थन देने का निर्णय लिया है। यह अप्रत्याशित नहीं था। विगत कुछेक माह से केन्द्र की हर रिपोर्ट में राज्य सरकार की प्रशंसा से यह कयास लगाये जा रहे थे कि कांग्रेस के  नीतीश  प्रेम का कोई न कोई कारण अवश्य  है। नीतीश के सात साल के शासन से जनता का मोहभंग हुआ है। आपातकाल के स्तर की अफसरशाही, पंचायत स्तर तक फैला भ्रष्टाचार, बढ़ता हुआ अपराध का ग्राफ तथा घोटालो  ने नीतीश  की छवि को धूमिल किया है। आनेवाला लोकसभा चुनाव जदयू के लिए भारी साबित होगा। हालांकि यह सही है कि बिहार में अभी विकल्पहीनता की स्थिति है। राजद की तरफ लोगों का झुकाव नहीं हो पा रहा है। कारण है राजद के निचले स्तर पर वहीं आतंकराज कायम करनेवाले पुराने चेहरों का काबिज रहना। वर्तमान में राज्य स्तर पर राजद में जदयू से ज्यादा अच्छी छवि के नेता हैं जिनके उपर कोई भी अभियोग लगाना जदयू के लिए संभव नहीं है। राजद के रघुवंश  प्रसाद सिंह, जगतानंद सिंह, राम कृपाल यादव, रामचंद्र पूर्वे , राजनीति प्रसाद, आलोक मेहता, अब्दुल बारी सिद्विकी के मुकाबले जदयू के श्याम रजक, जीतनराम मांझी, रंजन यादव, उदय नारायण चैधरी जैसे नेता छवि के स्तर पर कहीं नहीं टिकते हैं। नीतीश  कुमार को भी सरकार की धूमिल होती छवि का अहसास है इसीलिए उनके राजनीतिक प्रबंधक कभी केन्द्रीय विश्वविद्यालय कहां स्थापित हो या देश  का अगला प्रधानमंत्री कोई धर्मनिरपेक्ष छवि का नेता बने, जैसे नन-इश्यू को इश्यू बनाने का प्रयास करते दिखते हैं। नीतीश  कुमार प्रधानमंत्री पद के आकांक्षी जरूर है लेकिन उन्हें पता है कि एनडीए की तरफ से वे पीएम पद के उम्मीदवार नहीं होंगे। नीतीश  कुमार के लिए आगामी लोकसभा चुनाव उनके शासन के कार्यो की परीक्षा की घड़ी साबित होगा।



           वर्तमान परिदृष्य में बिहार में लोकसभा की वर्तमान सीटों को बचाये रखना जदयू-भाजपा के लिए संभव नहीं है। नीतीश कुमार को प्रणव मुखर्जी का समर्थन इन सभी मुद्दों को नजर में रखते हुए किया जा रहा है। लोकसभा चुनाव तक यूपीए तथा एनडीए दोनों के समीकरणों में बदलाव आने के संकेत साफ दिख रहे हैं। कांग्रेस जदयू का नया समीकरण बन सकता है और लालु यादव के लिए यह स्थिति कठिन साबित होगी। यूपीए-एनडीए में बिखराव की स्थिति में बिहार में त्रिकोणीय मुकाबला होने की प्रबल संभावना है। जहां लालु-रामविलास-उपेन्द्र कुशवाहा एवं साम्यवादी एक गठबंधन में होंगे, वहीं नीतीश (जदयू)-कांग्रेस का दूसरा गठबंधन होगा। भाजपा इन दोनों गठबंधनों से अलग होकर चुनाव मैदान में उतरेगी। जिस मुस्लिम मतों के कारण कांग्रेस और जदयू पास आ रहे है वह निर्णायक साबित होगा तथा भाजपा को टक्कर देने वाले गठबंधन के पक्ष में जायेगा। आनेवाले लोकसभा चुनाव में  लालु-नीतीश  के विरोधी मतों का रूझान भाजपा की ओर होगा वहीं  लालु-रामविलास-उपेन्द्र कुशवाहा-साम्यवादी और धर्मनिरपेक्ष या भाजपा विरोध मत राजद गठबंधन को मिलेगा। मुख्य मुकाबला राजद गठबंधन एवं भाजपा के दरम्यान ही होगा। महाराष्ट्र में शिवसेना की अपनी मजबूरी है संगमा को समर्थन न देने का कारण संगमा का इसाई होना है। इसके अलावा भाजपा को मनसा यानी राज ठाकरे से दूर रखने तथा कांग्रेस का रूख अपने प्रति नम्र बनाये रखने के लिए भी शिवसेना ने प्रणब मुखर्जी को समर्थन देने का निर्णय लिया है।
इन सभी राजनीतिक कारणो के अलावा रिलायंस ग्रुप की भूमिका भी एक बहुत बडा कारण है प्रणव दा को समर्थन देने का। देश के सबसे धनी घराना के रुप मे स्थापित रिलायंस को इस मुकाम तक पहुचाने मे प्रणव दा की अहमं भूमिका मानी जाती है ।

 राष्ट्रपति के चुनाव में युपीए तथा एनडीए गठबंधनों में जो दरकन नजर आ रही है, लोकसभा चुनाव आते-आते उसमें अलगाव स्पष्ट दिखेगा। दोनो गठबंधन नये समीकरणों के साथ  लोकसभा चुनाव में एक दुसरे का मुकाबला करते नजर आयेंगे।      


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