टूजी फ़ैसला : जज साहब यह क्या किया ?
टूजी फ़ैसला : जज साहब यह क्या किया ?
आज टूजी मामले में एक अहम फ़ैसला सुनाते हुये , उच्चतम न्यायालय के दो जज जी एस सिंघवी एवं ए के गांगुली ने १२२ लायसेंस रद्द करने तथा स्पेक्ट्रम की पुन: निलामी का आदेश पास किया। न्यायालय ने सरकार की नीति पहले आओ पहले पाओ को खारिज करते हुये यह आदेश पारित किया । बिहार मीडिया ने कल दिनांक एक फ़रवरी के लेख“ तू चोर ,तू चोर : टूजी मामला “में इस बात को जाहिर कर दिया था कि न्यायालय में, भी भ्रष्टाचार की बजाय आवंटन की नीति पर बहस हो रही है जो एक खतरनाक संकेत है और इससे भ्रष्टाचार के असली दोषियों को फ़ायदा होगा , आज न्यायालय के फ़ैसले ने वही किया । न्यायमूर्ति कहलाने वाले जज महोदय नें आवंटन की नीति को हीं गलत ठहरा दिया और १२२ लायसेंस को रद्द कर दिया । रद्द होने वाले लायसेंस में वे कंपनियां भी शामिल हैं , जिनके खिलाफ़ सीबीआई जांच के दौरान कोई गडबडी नही पाई गई थी । यह कैसा फ़ैसला है ? क्या इसे “ अंधी नगरी चौपट जज (राजा ) , टके सेर भाजी , टके सेर खाजा “वाला फ़ैसला नहीं कहेंगें ? जो कंपनियां दोषी नहीं थीं, उनका लायसेंस रद्द करने का आदेश कैसे न्यायोचित ठहराया जा सकता है ? लेकिन हमारे यहां की न्यायिक व्यवस्था न्याय कम लोकप्रियता ज्यादा पसंद करती है , दोनो जजो ने यही किया । दुसरी बात , न्यायपालिका को नीतिगत मामले में तबतक दखल देने का अधिकार नही है , जबतक की वह नीतिगत निर्णय संविधान की भावना और प्रावधान के खिलाफ़ न हों या जनहित में न हो । पहले आओ पहले पाओ की नीति की जितनी भी प्रशंसा की जाय वह कम है , दुर्भाग्य से दोनो जजो ने यह नही सोचा कि अगर एक लाख छिहतर हजार करोड के अनुमानित –काल्पनिक घाटे को आधार बनाकर लयसेंस कैंसिल करते हुये स्पेक्ट्रम की निलामी की जाती है तो आम जनता ।के लिये मोबाइळ फ़ोन की सुविधा महंगी हो जायेगी । निलामी में स्पेक्ट्रम की खरीद करनेवाली कंपनियां अपनी लागत मोबाईल उपभोक्ता से हीं वसूल करेंगी। यह फ़ैसला न सिर्फ़ उच्चतम न्यायपालिका के जजों के विवेक के स्तर को दर्शाता है बल्कि फ़ैसले के बाद विभिन्न चैनलों पर दिखाई जा रही खबर के स्तर के आधार पर देश के पत्रकारों के स्तर को भी बयां करता है । इस मुकदमें की शुरुआत में हीं जब गांगुली साहब ने पहले आओ पहले पाओ की नीति पर सवाल खडे किये थें तो मैने लिखा था कि टूजी मामला गलत मोड ले रहा है । खैर संभावना तो नही है कि यह आदेश प्रभावी रहेगा । उच्चतम न्यायालय की बडी बेंच में अब इसकी सुनवाई होनी चाहिये । यह आदेश संविधान के प्रावधान के विपरित हैं क्योंकि नीतिगत मामले में न्यायालय ने ह्स्तक्षेप किया है । उच्चतम न्यायालय के दोनों जजो का यह निर्णय देश की जनता के हितों के भी खिलाफ़ है , अगर स्पेक्ट्रम की निलामी होगी तो भार आम जनता पर हीं पडेगा । न्यायालय का यह आदेश हास्यापद भी है। जब टेलीकाम कंपनियों के अधिवक्ता ने यह दलील दी कि अगर पहले आओ पहले पाओ की नीति को गलत ठहराया जा रहा है तो २००१ से लागू इस नीति के तहत जितने भी लायसेंस निर्गत हुये हैं , सब रद्द होने चाहिये । दोनो जजो का जवाब था कि पहले जिन्हें लायसेंस मिला है वे इस मुकदमें में पार्टी नही हैं। यह बचकाना निचली अदालत के दिवानी मुकदमे के न्यायाधिश जैसा जबाब था । दुर्भाग्य है कि हमारे देश की उच्चतम न्यायालय में भी ऐसे न्यायाधीश हैं । जनता की यादाश्त बहुत कमजोर होती है याद दिला देता हूं , २००१ के पहले मोबाइल काल की दर क्या थी और पहले आओ पहले पाओ की नीति लागू के होने के बाद दरों में कितनी कमी आई। यह नीति कांग्रेस और भाजपा दोनो की रही । एक और उदाहरण देता हूं , अगर आज राज्य सरकारें बालू घाट या पहाडों की निलामी करने के बजाय पहले आओ पहले पाओ की नीति के आधार पर ठेका दे तो कल से मकान बनाने की लागत कम हो जायेगी , जैसे हमारे बिहार में शराब की निलामी बंद होने के बाद शराब सस्ती हो गई । मैं इसके लिये नितीश जी को धन्यवाद देता हूं .
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