आत्मकथा भाग 1 ::खोया ही खोया पाया कुछ भी नहीं

खोया ही खोया पाया कुछ भी नहीं

अपनी जिवनी लिखना शायद उतना आसान नहीं जैसा सोचा था. आज जब लिखने के पहले यादो के गलियों से गुजरते हुए वहां पहुचा जहां से झरोखे से कुछ धुंधले दृश्य दिख रहे थे तो खुद को रोने से नहीं रोका पाया . कमरा बंद कर के फुटफुट कर बच्चे की तरफ रोया. बड़की माई, नुनु जी, नेता जी, टूनाइ भैया , बाबूजी, सुभाष , चंदु, अरविंद ,श्याम बिहारी चाचा, माई, ये किरदार याद दिला रहे है गाँव की जहाँ से यादे झांक रही है.
सात आठ साल की उम्र रही होगी. स्कुल का प्राथमिक विद्यालय लकड़ी की स्लेट जिसे दावात से गालिस करके चमकाता था , खल्ली से उसपे पाठ लिखता था. दस बजे तक खाना बन जाता था . बड़ा सा घर दसियों लोग एक बड़की माई सबका खाना बिना ऊबे लकड़ी, राहर की झाड या गोइठा पर बनाती थी धुंआ को मुह से फुक कर हटाती थी .
स्कुल में खेती की शिक्षा भी दी जाती थी उसके लिए एक एक छोटा सा जमीन का टुकड़ा टीम बनाकर छात्रो को दिया जाता था जिसकी फसल अच्छी हो उसको ज्यादा नंबर मिलता था.
सुबह में भात दाल खाकर जाते थे . गरमी में भात खराब ना हो इसलिए पानी में डालकर रखा जाता था. इस पानी वाले भात को सरसों का तेल नमक लाल मिर्च के साथ खाने में भी गजब का स्वाद मिलता था. दोपहर के बाद सतुआ खाने का नियम जैसा था.
नुनु जी सात फिट के जवान , लंबा चौड़ा शरीर कम बुद्धि लेकिन दिल के साफ़ .बाबा के लाड प्यार के कारण पढ़ाई पर कभी उन्होंने ध्यान ही नहीं दिया . मांस के शौक़ीन थे. भड़भूजा वाली के यहाँ से भुजा आता था . चिउड़ा के लाई बच्चो के लिए रहता था.
माई के पास पैसा नहीं रहता था फिर भी पांच पैसा दस पैसा सभी भाई बहन से छुपाकर मुझे देती थी.
एक दिन पता चला मुझे गया जाना है . बाबा ने बुलाया है या बाबा शायद खुद लेने आये थे. मेरा घर गया है जहां मेरे पिता जी रहते है. मेरी माई मर गई थी यह माई मेरी नहीं है. मैंने मानने से इनकार कर दिया . भागकर बिलर की बाड़ी चला गया . पेड़ पर चढ़ गया. गाली देने लगा बाबा को. ""ना जाईब रे बुढवा ना जाईब . भाग कुत्ता इहा से . माई के छोड़ के ना जाइब . हमार कौनो पिता जी नइखे . माई बोल ना रे कि तुहे माई हउए ""
.
इधर मै रो रहा था उछल रहा था मुझे जबरदस्ती ले जाने के लिए पकड़ कर लाया गया था. उधर घर में कोठरी में माई रो रही थी . तड़प रही थी.
एक सात साल के बाच्चे में कितनी ताकत ? थक गया . मुझे जबरदस्ती लाकर चल दिए मै रोता रहा गाँव से बस तक . बस में फिर शायद सो गया . याद नहीं ठीक से .
गया का पक्का घर बड़ा सा मकान . नइ माँ जिनके दो बच्चे पहले से थे . एकदम अनजान मेरे लिए . बिस्तर गिला करने की आदत थी सोते में . बाबा ने एक छोटा सा बेड बनवाया था जो चारो तरफ से घिरा हुआ था वह ठीक उसी तरह का दीखता था जैसा मुसलमानों में लाश को ले जाने वाला होता है . उसी बिस्तर पर सोता था. अकेले .

Comments

Popular posts from this blog

आलोकधन्वा की नज़र में मैं रंडी थी: आलोक धन्वा : एक कामलोलुप जनकवि भाग ३

भूमिहार :: पहचान की तलाश में भटकती हुई एक नस्ल ।

आलोक धन्वा : एक कामलोलुप जनकवि – भाग १