भूमिहार :पहचान की तलाश में भटकती एक नस्ल
हिन्दुस्तान की हर जाती का कही न कही जिक्र प्राचीन धार्मिक - इतिहासिक पुस्तको में मिल जाएगा परन्तु भूमिहार जाति का कही कोई जिक्र प्राचीन ग्रंथो में नहीं मिलेगा । इनकी उत्पति के विषय में विभिन्न मिथ लिजेंड मिलेगा परन्तु प्रमाणिक शोध पुस्तको में इनका जिक्र कही शुद्र , कहीं मंगोल मुजफ्फरपुर बिहार के हुसैनी ब्राहमण , कहीं राजपूत पिता और ब्राहमण माता की सन्तान , कहीं बुद्धिस्ट ब्राह्मण से हिन्दू धर्म में वापस आई जाति के रूप में मिलता है ।
चुकि प्रमाणिक शोध पुस्तके इन्हें ब्राहमण नहीं मानती और मिश्रित जाती यानी hybrid मानती है जिसके कारण जातीय व्यवस्था वाले भारत में ये खुद को असहज महसूस करते है और कुछ हद तक हीन भी इसलिए शोध पुस्तको को ये स्वीकार नहीं करते है ।
खुद को ब्राहमण साबित करने के लिए ये स्वामी सहजानंद सरस्वती द्वारा 1916 में लिखित पुस्तक " भूमिहार ब्राह्मण एक परिचय " को प्रस्तुत करते हैं । इस पुस्तक में हिन्दुओ के अनेको धार्मिक ग्रंथो का हवाला देते हुए ब्राहमणों को दो वर्ग में सहजानंद ने विभाजित किया था " याचक " एंव अयाचक "" यानी एक भिक्षाटन करने वाला दूसरा भिक्षाटन नही करने वाला ।
वस्तुत: खुद सहजानंद भी जमींदार नहीं थें ।
भूमिहारो में दो वर्ग रहा है एक जो जमींदार थे दूसरा जो रैयत थे ।
सहजानंद के परिवार की जमींदारी धीरे धीरे समाप्त हो गई और वे रैयत की श्रेणी में आ गए थे ।
सहजानंद रैयत भूमिहारो का प्रतिनिधित्व करते थे और दुसरे थे गणेश दत जो जमींदार भूमिहारो का प्रतिनिधित्व करते थे ।
भूमिहारो की जनसंख्या तकरीबन 50 से 50 लाख है जिसमे से 35-40 लाख बिहार में हैं ।
मुख्यत:यह नस्ल पूर्वी भारत के बिहार , यूपी के पुर्वांचल, झारखंड, बंगाल, मध्य प्रदेश के बुन्देल खंड तथा नेपाल में पाई जाती है ।
हालांकि शिक्षा का स्तर ठीक रहने के कारन कालांतर में यह मारीशस, सूरीनाम,ट्रिनीटाड , टोबैको ,गुआना , फिजी में भी जा बसे ।
ब्राहमणों के साथ इनका विरोध बहुत पुराना रहा है ।
खुद को संगठित करने एंव ब्राहमण की सामजिक हैसियत बनाकर उनके साथ शादी ब्याह का संबंध स्थापित करने तथा पूर्णत: स्वीकार्य हो जाने के बाद देशभर में ब्रहामण राजनीति पर अपनी पकड़ बनाने के उद्देश्य से 1889 में एक "" प्रधान भूमिहार ब्राहमण सभा "" का आयोजन पटना में इन्होने किया तथा अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए " भूमिहार ब्राहमण महासभा "" की स्थापना 1896 में इन्होने की ।
ब्रिटिश सरकार के पूर्व के दस्तावेजो में इनका जिक्र " शुद्र " के रूप में था । उसका आधार धार्मिक था । खुद को सरकारी दस्तावेज में ब्राहमण दर्शाने के लिए इस महासभा ने लगातार प्रयास जारी रखा और 1901 के सर्वे में ब्रहामण दर्शाने हेतु आवेदन दिया । इस सभा ने मुजफ्फरपूर एंव पटना में वर्ष 1899 , गया में 1900 और सारण में 1908 में बृहद पैमाने पर सभा आयोजित कर के सर्वे में ब्राह्मण के रूप में शामिल करने के लिए दबाव बनाना जारी रखा ।
ब्रहामण - भूमिहार विवाद पहली बार उभर कर यूपी के बलिया जिले में भूमिहार महासभा द्वारा आयोजित 1914 सभा के सहजानंद के द्वारा याचक अयाचक के फार्मूला के कारण सामने आया ।
भूमिहार जो बाभन कहे जाते थे उन्होंने खुद को भूमिहार ब्राहमण कहना शुरू कर दिया ।
प्रतिष्ठित ब्राहमणों ने प्रतिकार में इनके यहाँ आना जाना बंद कर दिया । ब्राहमणों के एक समूह ने तो इनके यहाँ धार्मिक संस्कार न करवाने की प्रतिज्ञा कर ली जिसपर आज भी वे टिके हुए हैं ।
क्रमश.......
नोट ::अगले भाग में भूमिहार नस्ल की उत्पति के विषय में पढ़े ।
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