नास्तिक सम्मेलन ,कुछ अनुत्तरित सवाल

नास्तिक सम्मेलन के संयोजक स्वामी बालेन्दु जी के नाम खुला पत्र :
स्वामी जी अपने इस पत्र की शुरुआत मैं एक वर्ड आफ विजडम से करना चाहता हूँ ।

"",  Theist believe God  exist but the Atheist believe God doesn't exist ,on one point both  are unanimous that is that the faith in their believe .

Lesson:  faith in believe is God "

बालेन्दु जी सबकुछ खैरियत तो है ? इधर देखा कोई नास्तिक सम्मेलन आप कर रहे थे जिसमे वीएचपी,बजरंग दल वगैरह वालो ने बाधा पहुचाई और सम्मेलन रद्द करना पड़ा । मुझे तो पहचान ही रहे होंगे ? 2012 में जब आप सोशल मीडिया में पहचान बनाने का प्रयास कर रहे थे तब हम जुड़े थे ,याद आया ? आपके ब्लॉग/लेखों का अंग्रेजी से हिंदी में रूपांतरण का कार्य  भी किया था मैंने  , जिसका आभार आपने प्रकट किया था ,यह सब याद दिलाने का कारण मात्र यह है कि आप शांतिपूर्वक मेरे इस पत्र को पढकर तार्किक जवाब दे ।  स्वामी जी एकबात मैं नहीं समझ पाया यह नास्तिक सम्मेलन करने का औचित्य क्या था ? फन विद फ्रेंड तो ठीक है ,लेकिन इवेई फन विद एथिस्ट फ्रेंड का क्या मतलब हुआ ?
स्वामी जी एक सिद्धार्थ नामक राजकुमार था जिसे रोग,शोक,वृद्धावस्था,मृत्यु से बहुत मानसिक पीड़ा होती थी उसने इसके निदान का संकल्प लिया और निकल पड़ा सत्य की तलाश में ,शायद मेरी तरह वह भी Agnostic था इसलिए ज्ञान प्राप्ति के बाद भी आत्मा का अस्तित्व है या नहीं इस प्रश्न को बुद्धत्व प्राप्ति के बाद भी उसने टाल दिया था ,  भले thomas H Huxley उस समय नहीं था और agnosticism के  सिद्धांत की खोज नहीं हुई थी परंतु prefix " A" यानी without ,not और Gnostic या gnosis यानी knowledge का अस्तित्व तो था ही ।  Huxley ने सिर्फ दोनों शब्दों को जोड़कर एक नए विचार को स्थापित किया, अन्यथा बुद्ध तो साक्षात agnosticism के प्रतिक थे  । स्वामी बालेंदू जी ,उस सिद्धार्थ ने सबसे पहला कार्य किया अपनी पुरानी राजकुमार की पहचान को समाप्त करने का ,अपने परिधान का त्याग ,गहने आभूषण, अश्व,हथियार ,सुख सुविधाओं का त्याग , यहाँ तक की अपने केश भी नदी  को समर्पित कर दिया । बुद्ध का उदाहरण देने का तात्पर्य  यह बतलाना है कि किसी एक वैचारिक सिद्धांत से दूसरे सर्वथा विपरीत सिद्धांत की तरफ प्रस्थान के पहले पुराने विचारो से जुड़ी हुई सभी पहचान को समाप्त करना एक अनिवार्य शर्त होती है ।
आप पहले आस्तिक थे इसमें कोई विवाद नहीं है ( अभी भी है ) । आपका व्यवसाय योग,ध्यान केंद्र  संचालन ,विदेशी पर्यटको को भारत के धार्मिक स्थलो का भ्रमण करवाना था । आप विदेशो में फ़ीस लेकर प्रवचन भी देते थे ,अभी भी देते हैं ,मन्त्र के कैसेट की बिक्री, वस्त्रो की बिक्री आपका पेशा था ,आपने वंचित बच्चों के लिए स्कुल खोला जिसमे आप लोगो को उन बच्चों को एडाप्ट यानी शिक्षा प्रदान करने के लिए राशि देने का निवेदन करते थे ,आपकी वेबसाइट प्रतिदिन बताती थी कितने बच्चे को कपड़ा नहीं मिला है ,फ़ीस नहीं मिली है ,कितने बच्चे अभी उपलब्ध है गोद लेने के लिए ।
स्वामी जी आस्तिकता के उस दौर में आशाराम, रविशंकर वगैरह आस्तिक प्रसिद्धि भी पा रहे थे और अच्छी कमाई भी कर रहे थे ,प्रयासों के बावजूद आपको इनके जैसी सफलता नहीं मिल रही थी ,वही से आपने इनसे इतर कुछ नया करने का निश्चय किया जिसका मूल कारण गहरे पैठी ईर्ष्या थी , आस्तिकता से नास्तिकता की ओर पलायन की शुरुआत वहीँ से हुई ।  

स्वामी जी खुद को सबसे अलग दिखलाने के लिए नए सिद्धांत की जरूरत थी जिसका निर्माण अत्यंत कठिन होता है ,रातोरात न कोई बुद्ध बनता है ,न सार्त्र ,न रजनीश ।

हां एक जगह खाली थी ,रजनीश की मृत्यु के पश्चात उसका स्थान रिक्त हो गया था ,रजनीश मूलत: न आस्तिक थे न नास्तिक ,हां वे फ्रीडम आफ सेक्स को लिबर्टी का बेहतर रास्ता मानते थे ,उन्होंने सभोग से समाधि तक में ध्यान के अनन्त आनन्द की तुलना संभोग की चरम अवस्था यानि स्खलन ( ejeculation ) के समय की मानसिक अवस्था शून्य से करके एक नए विचार को स्थापित किया था ,यह दर्शन था या नहीं या उनकी तुलना चार्वाक के सिद्धांत का परिमार्जित रूप था यह तर्क का अलग विषय है ।

स्वामी जी आपने धीरे धीरे सेक्स की आजादी को अपने ब्लॉग के माध्यम से प्रचारित करना शुरू किया ,किसी नए दर्शन की स्थापना की जगह आपको नास्तिकता के प्रचारक के रूप में खुद को स्थापित करना कम समय में सफलता पाने का सरल तरिका नजर आया और आपने रविशंकर ,आशाराम जैसो से प्रसिद्धि की दौड़ में इसे अपना हथियार बनाया । 

स्वामी जी बुद्ध का उदाहरण मैंने दिया है ,आस्तिकता से नास्तिकता तक के सफर में आप पुरानी पहचान को त्यागना भूल गए या फिर उस पहचान का संबन्ध रोजी रोटी धन दौलत से था इसलिए उनका त्याग अव्यवहारिक लगा आपको ।

स्वामी जी आपका वस्त्र, स्वामी उपाधि, आश्रम पद्धति ,आश्रम और निवास में मूर्ति, देवता देवियो की तस्वीर, विदेश में योग और ध्यान पर प्रवचन यह सबकुछ आज भी आस्तिकता वाला ही है । आपने इनका त्याग क्यों नहीं किया यह यक्ष प्रश्न है इसका जवाब आपको देना चाहिए ।

योग बिना किसी आकर की कल्पना के संभव नही है ,चित को एकाग्र किये बगैर कसरत भले हो योग नहीं हो सकता । एकाग्रता भले ही ईश्वर की जगह पर शून्य को ही केंद्रबिंदु में रखकर ही क्यों न हो लेकिन शून्य का वह रूप भी साकार होना चाहिए ,ठीक निराकार अल्लाह के भक्तो के द्वारा नमाज के समय साकार काबा की तरह ही क्यों न हो । मस्तिष्क कभी भी निराकार नहीं रहता ,सोते समय भी नहीं ।

ध्यान तो स्वभाविक है किसी अदृश्य शक्ति की कल्पना के बगैर संभव ही नहीं है । 

आप योग भी सिखाते है ,ध्यान का अभी प्रचार करते है फिर यह कैसी नास्तिकता ? 

स्वामी जी आप अभी भी विदेश यात्रा करते हैं ,आस्तिकता के दौर में तो आप वहां धर्म प्रचारक ही थे ,नास्तिकता को अंगीकार करने के बाद आपने योग और ध्यान की कोई नास्तिक पद्धति विकसित की या नहीं ,यह आपने कभी नहीं बताया ,आपको बताना चाहिए ,यह प्रश्न भी यक्ष प्रश्न है .. पलायन के इस दौर में आपने मुझे अमित्र कर दिया था शायद मेरी कठिन टिप्णीयो के कारण किया होगा हालांकि purendu swami अभी भी मित्र है । खैर यह कोई मायने नहीं रखता । स्वामी जी अब वर्तमान घटनाक्रम पर आये तो बेहतर होगा । नास्तिकोत्सव में मात्र 30-40 लफंगे हंगामा करते है ,आपके 500 मित्र वहां उपस्थित है ,कोई प्रतिकार नहीं करते ? आश्चर्य है ?

स्वामी जी 40-50 लफंगे आपके नास्तिकोत्सव में हंगामा करते है ,आपके 500 नास्तिक मित्र वहां उपस्थित है ,वे कायरो की तरह मूक दर्शक बने रहते है ,यह अजीब नहीं लगता ? कैसी मित्रता है यह ? 

आपके मित्रो में पगड़ीधारी सिक्ख ,नमाजी मुस्लिम,घर में देवी देवताओ की तस्वीर-मूर्ति रखने वाले हिन्दूओ की तादात सबसे ज्यादा है ,यह कैसे नास्तिक है स्वामी जी ? 

मैंने अपने तीन भाग के इस पोस्ट में बहुत सारे प्रश्न उठाये है ,विश्वास है कि आप इनका जवाब देंगे ,मित्र न समझे तब भी जवाब को मेरा मेहनताना समझ ले ,आपके ब्लॉग / लेख के अंग्रेजी से हिंदी रूपांतरण करने का और जवाब दे । 

रह गई नास्तिकतोत्सव की बात तो मैं आपको निमन्त्रित करता हूँ ,आप आये बोधगया में अपना सम्मेलन करे ,हिन्दुओ के मंदिर विष्णुपद में करे ,मैं  व्यवस्था कर दूंगा ,आप अगर चाहेंगे तो आर एस एस जिला प्रमुख के धर्मशाला में उसका आयोजन कर सकते है । न जाने क्यों वृन्दावन में जो कुछ हुआ वह मुझे प्रायोजित लगता है । हो सकता है यह मेरा पूर्वाग्रह हो परन्तु आपके मित्रो द्वारा विरोध न करना संशय तो पैदा करता ही है । रातोरात ख्याति प्राप्त करने का पुराना तरिका ,जिसमे आप सफल रहे ,चलिए आस्तिक बनकर रविशंकर , आशाराम बनने की इच्छापूर्ति नास्तिक अवतार ने पूर्ण कर दिया ।

Comments

Popular posts from this blog

आलोकधन्वा की नज़र में मैं रंडी थी: आलोक धन्वा : एक कामलोलुप जनकवि भाग ३

भूमिहार :: पहचान की तलाश में भटकती हुई एक नस्ल ।

भडास मीडिया के संपादक यशवंत गिरफ़्तार: टीवी चैनलों के साथ धर्मयुद्ध की शुरुआत