भ्रष्टो को साथ ले , भ्रष्टाचार के खिलाफ़ राजद- कांग्रेस का आंदोलन
स्थानीय प्रतिनिधियों को अधिकार नही जेल चाहिये
मुखिया-पार्षदो को राजद – कांग्रेस का समर्थन
नितीश का विरोध क्या षडयंत्र है ?
भ्रष्टो को साथ मे लेकर भ्रष्टाचार के खिलाफ़ लडाई , हास्यापद
राजद –कांग्रेस चेत जायें।
अभी बिहार के गया जिले मे एक नया शगुफ़ा छोडा है स्थानीय प्रतिनिधियों
ने । उनका कहना है कि अधिकारी उन्हे अधिकार प्रदान नही कर रहे हैं । स्थानीय प्रतिनिधि
यानी नगर निकाय
, नगरपालिका, नगर निगम एवं पंचायत के निर्वाचित प्रतिनिधि, मुखिया, सरपंच , मेयर अध्यक्ष वगैरह
। राजीव गांधी के लिये गये निर्णयों मे सबसे गलत था स्थानीय निकायों को संवैधानिक मान्यता
प्रदान करना। भ्रष्टाचार के खाते मे जानेवाले एक रुपया मे से अस्सी पैसा इन्हीं प्रतिनिधियों
की जेब मे जाता है । एक मुखिया या पार्षद चुनाव जितने के पहले हीं साल में सायकिल से
बेलोरो या स्कार्पियो पर चलने लगता है जबकि उसे कोई वेतन नही मिलता है ।
नगरपालिका और जिला परिषद के अध्यक्ष , उपाध्यक्ष
के चुनाव मे चुननेवाले प्रतिनिधियों की खरीद-बिक्री का खेल खेला
जाता है। मैने बहुत पास से गया नगर निगम का खेल देखा है । १० साल पहले पच्चीस हजार
से शुरु हुये इस खेल मे एक पार्षद की किमत अब तीन से पाच लाख रुपये हो गई है। अभी मुछ
माह पहले गया नगर निगम के चुनाव मे पार्षद बिके। खरीददार थें गया नगर निगम के मोहन
श्रीवास्तव , उपाध्यक्ष एवं मेयर वीभा देवी। जिला परिषद के उपाध्यक्ष हैं शीतल यादव
, कुख्यात बिंदी यादव के भाई , अध्यक्षा हैं नीमा
देवी। ये सब समाज सेवक नहीं हैं । निगम के उप महापौर राजद शासनकाल मे काफ़ी कुख्यात
रहे हैं, अपहरण
से लेकर वेश्यावर्ति और नेताओं को लडकियां
सप्लाई करके राजनीति मे आ पहुंचे है। अध्यक्षा वीभा देवी एक घरेलू महिला हैं
, उनके पति है भू - माफ़िया। किसी एक खेत मे , एक हीं बीज
और खाद से पैदा हुये चावल का स्वाद जानने के लिये एक मुठ्ठी चावल पकाने की जरुरत है।
बिहार के स्थानिय निकाय नामक खेत मे अनैतिक बीज से पैदा हुये मुखिया –पार्षदों की असलियत को जानने के लिये मैने गया जिले के नगर निगम और जिला परिषद
को चुना है ।
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की अधिकार यात्रा मे जगह – जगह
प्रदर्शन हो रहे हैं । हालात बदतर हैं , जनता भ्रष्टाचार एवं
अफ़सरशाही से त्रस्त है। इस परिस्थिति मे विरोध स्वाभाविक लगते हैं लेकिन जब मुख्यमंत्री
यह कहते हैं कि इसके पिछे राजनीतिक साजिश है तो उसे सामान्य राजनीतिक प्रतिक्रिया मानकर
भले हीं नकार दिया जाय , परन्तु मुख्यमंत्री का वक्तव्य एक प्रश्न
तो पैदा कर देता है । अन्ना के आंदोलन को आर एस एस का समर्थन एवं सहयोग की बात को भी
राजनीतिक प्रतिक्रिया मानते हुये नकारने की भुल लोगों ने की थी लेकिन सच जब सामने आया
तब पता चला कि वह मात्र राजनीतिक प्रतिक्रिया नही थी बल्कि उसके पिछे सत्य था।
पिछले सात सालों से अजगर की तरह शांत होकर विकास की राशि को डकार
जाने वाले मुखिया
– पार्षदों का अचानक चेतन हो जाना भगवान बुद्ध द्वारा की गई लंबी तपस्या के औचित्य पर सवाल
खडा करता है । ये स्थानिय निकाय के प्रतिनिधि , चुनाव के पहले
सायकिल पर चलते हैं , जैसे हीं मुखिया या पार्षद बनते हैं,
एक साल के अंदर सुमो , स्कार्पियो । इन्हे कोई
वेतन भता नही मिलता है । जब से स्थानिय निकायों का चुनाव शुरु हुआ है , हर पंचायत मे एक चुना हुआ गुंडा जिसे मुखिया कहते है और वार्ड मे पार्षद कहते
हैं , उसका आतंक दिनोदिन बढता जा रहा है । आम जनता अपने विधायक
का विरोध कर सकती है, सांसद च्का विरोध कर सकती है लेकिन इनका
नही , इनके आतंक को बढावा देने का काम किया है सरकार ने । चाहे
राशन के कुपन से लेकर वर्धा अवस्था पेंशन, आंगन बाडी
, स्कुल का ड्रेस सबकुछ इनके हीं माध्यम से होना है । कैसे कोई विरोध
कर सकता है । मुखिया की कमाई है , पंचायत मे चल रहा मनरेगा कार्यक्रम
, आंगनबाडी, न्याय मित्र, जन वितरण , आशा , मिड डे मील,
स्वच्छ्ता अभियान । सरकार से प्राप्त राशि मे से तीस से पचास पतिशत ये निगल जाते हैं । नगर निकायों
के पार्षद इन सब योजनाओ के अलावा ठेकेदारी भी करते हैं। ये प्रजातंत्र का भयावह चेहरा
है , कल के भविष्य , आज के डकैत । रह गई
इनके अधिकार की बात , ये अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर काम
करते है सिर्फ़ भ्रष्टाचार के लिये। हां यह सही है कि इनके भ्रष्टाचार के सहभागी सरकारी अधिकारी भी हैं।
स्थानिय निकाय के कानून जैसे पंचायती राज कानून एवं नगर पालिका कानून मे सबसे खामी
है उपाध्यक्ष एवं उप महापौर के पद का प्रावधान । इन दोनो का काम , अध्यक्ष की अनुपस्थिति मे सभा की अध्यक्षता भर करना है लेकिन ये दोनो पद सता
की धुरी बन गये हैं । बिहार का प्रत्येक नगर निकाय अध्यक्ष –उपाध्यक्ष
, के विवाद का शिकार है । नगर निकाय का काम योजनाओ का चयन करना और उनके
उपर निगरानी रखना भर है , परन्तु कमीशन के लालच मे मेयर
– उप मेयर अपने यहां ठेके के भुगतान की फ़ायल मंगवाते हैं , इनके निवास पर ठेकेदारो की भीड किसी भी समय देखी जा सकती है । कमीश ५ से १०
प्रतिशत है। गया मे छह प्रतिशत है, तीन –तीन प्रतिशत महापौर-उप महपौर का। इसकेअलावा जिस क्षेत्र
मे काम हो रहा है उस क्षेत्र के वार्ड पार्षद की अनुशंसा भुगतान के लिये चाहिये जिसमे
लिखा हुआ हो कि काम सही हुआ है । वार्ड पार्षद का कमीशन तीन प्रतिशत अलग से। कार्यालय
मे निगम आयुक्त, मुख्य अभियंता, सहायक अभियंता
, कनीय अभियंता , लिपिक वगैरह को मिलाकर १३ प्रतिशत
। यानी कुल मिलाकाकिसी भी योजना की २२-२३ प्रतिशत की राशि कमीशन
मे चली जाती है । ये स्थानिय निकाय के प्रतिनिधि यहीं पे पिछा नही छोडते हैं। ठेके
के काम भी यह दुसरे के नाम पर करते हैं। जब खुद काम करेंगें तो काम के स्तर को बनाये
रखने की बात हीं खत्म हो जाती है।
नगर निगम बहुत सारे संयंत्रो की खरीद करता है । सफ़ाई की महंगी मशीनो
से लेकर जलापूर्ति एवं रौशनी की व्यवस्था बनाये रखने के लिये यह खरीद कि जाती है। तीन
से चार गुणा ज्यादा दाम पर इन सयंत्रो की खरीद की जाती है। ३ लाख का जेनरेटर दस लाख
रुपये मे खरीदा जाता है । ठेके को मैनेज किया जाता है ताकि प्रतिस्पर्द्धा न हो या
ऐसी शर्तो को शामिल किया जाता है जिससे मनचाहे ठेकेदार को हीं ठेका मिले। वार्ड पार्षदो
को खुश रखने के लिये नीजि सफ़ाई कर्मचारी से सफ़ाई कार्य करवाने की अनुमति दी जाती है , यह
सफ़ाई कार्य सिर्फ़ कागजो पर होता है । निगम की बहुमुल्य जमीन को भी पार्षद अपने नाम
करवा रहे हैं। आज स्थानिय निकाय के प्रतिनिधि , विधायक से ज्यादा
ताकतवर हो चुके हैं और अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर काम करते हैं। ठेके की राशि
के भुगतान के लिये वार्ड पार्षद की अनुशंसा का कोई प्रावधान नही है। फ़ायलो का महापौर
– उप महापौर के यहां भेजने का भी कोई प्रावधान नही है । अपने अधिकार
क्षेत्र से बाहर जाकर काम करने का परिणाम भ्रष्टाचार एवं काम की गुणवता के कमी है।
इसे सबसे पहले रोकने की जरुरत है ।
प्रजातंत्र की सबसे निचली पायदान पर बैठे इन जन प्रतिनिधियों पर अगर
अंकुश नही लगाया तो संपूर्ण प्रजातंत्र खतरे मे पड जायेगा। मात्र १० -११
साल के हालात बद से बदतर हो चुके हैं।अधिकार की मांग काऔचित्य समझ मे नही आता । भ्रष्ट
मुखिया एवं पार्षदो द्वारा इस तरह की मांग उनके दुस्साहस को दर्शाती है। इन निकायों
की स्थित देखकर , पूर्वोतर राज्यो के स्वायतशासी कांउसिलों की
याद आ जाती है। दो तीन काउसिल का बहुत बारिकी से मैने अध्ययन किया है, वहां जाकर ।
1.
बोडो लैंड : बोडोलैंड आंदोलन कभी स्थानीय निवासियों
के अधिकार के पिये शुरु किया गया था, आज वह माफ़िया तंत्र का रुप
ले चुका है, दसो विभाजन उस आंदोलन मे हो चुके हैं, सभी धर्मो के लोगों को साथ लेकर शुरु हुआ आंदोलन आज संप्रदायिक रुप धारण कर
चुका है , बोडोलैंड के नेता , उसके क्षेत्र
मे आने वाले प्रत्येक गांव से साल मे लाख से चार-पाच लाख तक नाजायज
रकम वसुलते हैं , उन गांव के लोगों को शांति से रहने देने के
लिये।
2.
आर्बियांग (डिफ़ू) आसाम:
यहां तो मात्र अराजकता हीं बची है। स्थानिय लडके किसी भी लडकी के साथ
छेडखानी करते है, प्रशासन नाम की कोई चीज नही है, जो पलायन कर सकते थे, उन्होने डीफ़ू छोड दिया। काश्मीर
से ज्यादा पलायन डिफ़ू से हुआ है । इन सभी आंदोलनो पर विशेष रुप से कभी लिखुंगा।
3.
गोरखालैंड : गोरखालैंड के आंदोलन का परिणाम दार्जिलिंग
के क्षय के रुप मे सामने है। इस आंदोलन ने दारजिलिंग के पर्यटन व्यवसाय को गंभीर क्षति
पहुंचाई। दार्जिलिंग कभी साफ़ –सुथरा शहर था। वह मर गया
, गली से लेकर बाजार तक मे सरकारी जमीन पर अवैध निर्माण हुआ। आज दिन
के समय किसी भी होटल के दरवाजे तक गाडी नही पहुचती है। दारजिलिंग की लाश पर गंगटोक
नया पर्यटक स्थल के रुप मे विकसित हो चुका है , दारजिलिंग की
रौनक वापस भी आयेगी तब भी उसे पुराना मुकाम नही प्राप्त होगा।
अभी इन्होने एक प्रदर्शन किया था , अपने अधिकार की मांग को लेकर
, वस्तुत: उस प्रदर्शन के पिछे कुछ और कारण था।
इधर बिहार के विपक्षी दल राजद एवं कांग्रेस नितीश कुमार के शासन मे फ़ैले भ्रष्टाचार
, अफ़सरशाही एवं कानून व्यवस्था जैसे मुद्दे को लेकर आंदोलन चला रहे हैं।
यह सही है कि जनता का नीतीश कुमार के शासन से मोहभंग हुआ है। जनता अब बदलाव के लिये
सोच रही है लेकिन अभी वह निर्णय लेने की प्रक्रिया मे है। राज्य स्तर पर राजद मे बहुत
बदलाव दिख रहा है परन्तु वह बदलाव स्थानिय स्तर पर आते –आते खत्म
हो जाता है। स्थानिय स्तर पर वही पुराने चेहरे है जिनके आतंक के कारण जनता ने राजद को सता से बाहर
किया था । राजद को अभी बहुत मेहनत और परिवर्तन करने की जरुरत है । शिक्षको के आक्रोश
को समर्थन देना तो समझ मे आता है लेकिन भ्रष्टाचार के पर्याय बन चुके स्थानिय निकायों
की अपने अधिकार के लिये चलाये जा रहे आंदोलन का समर्थन देने का अर्थ समझ मे नही आता।
नब्बे प्रतिशत मुखिया या पार्षद अल्प मत प्राप्त करके विजयी होते है। पंचायत एवं वार्ड
का बहुमत उनके खिलाफ़
होता है। आम जनता उन्हे भ्रष्ट मानती है। जिला परिषद के अध्यक्ष-उपाध्यक्ष , नगर निगम के महापौर –उपमहापौर प्रत्यक्ष मत से नही जितते
हैं। ये वार्ड पार्षद या मुखिया को खरिद कर आते हैं। जनता का समर्थन इन्हें नही प्राप्त
होता है। एक छोटा सा उदाहरण यहां प्रस्तुत कर रहा हूं। गया नगर निगम मे उप महापौर है
मोहन श्रीवास्तव, राजद के शासनकाल मे कुख्यात रहे हैं । लालु
यादव के साले सुभाश यादव के खासमखास बनने के लिये इन्होने अतुल प्रकाश अपहरन कांड को
अंजाम दिया था। हालांकि उस मुकदमे मे ये बरी हो चुके है परन्तु वह निर्णय आज भी संदिग्ध
है । किसी ने आपति नही जताई वरना रिहाई करने वाले जज साहब को भी कठघरे मे खडा होना
पडता । मोहन श्रीवास्तव को कांग्रेस ने टिकट दिया था विधायक का, मात्र चार –पाच मत इन्हे प्राप्त हुआ जबकि इनके पहले
संजय सहाय ने राजद-कांग्रेस विरोधी समय मे भी २४ हजार से ज्यादा
मत प्राप्त किया था। गया मे स्थानिय निकायों के प्रतिनिधियों ने अपने अधिकार के लिये
प्रदर्शन किया , उनके मंच पर राजद के विनोद यादुवेंदु से लेकर
जिलाध्यक्ष राधेश्याम प्रसाद तक मौजूद थें। कांग्रेस के भी कुछ छुटभैये नेता थी। राजद की इस
तरह की राजनिति आत्मघाती साबित होगी । भ्र्ष्टाचार के तंत्र को समर्थन देते हुये भ्रष्टाचार
के खिलाफ़ संघर्ष की बात करना हास्यापद लगता है। राजद अपने मे सुधार लाये।
नीतीश कुमार की अधिकार यात्रा के दौरान जगह – जगह
पर प्रदर्शन हुये, उन्हे काले झंडे दिखाये गयें। कालो झंडो पर
प्रशासन ने रोक लगाकर आपातकाल की याद ताजा कर दी। नीतीश कुमार ने इन प्रदर्शनो को विपक्ष
का षडयंत्र बताया । स्पेशल टीम से जांच की बात की गई। शिक्षको का आक्रोश जायज था
, हो सकता है विपक्ष ने उन्हे प्रदर्शन करने के लिये प्रोत्साहित किया
हो , मैं इसे गलत नही मानता । अत्याचार के प्रतिकार के लिये प्रदर्शन
करने वालों को बढावा देना गलत नही है। हम एक प्रजातांत्रिक व्यवस्था मे रह रहे हैं।
लेकिन सिर्फ़ सभा मे व्यवधान पैदा करने के उद्देश्य से प्रदर्शनकारियो
को चाहे वे शिक्षक हो या स्थानिय निकायो के प्रतिनिधि , प्रोत्साहित
करना निसंदेह गलत है । इसका प्रजातांत्रिक तरीका है स्वंय विरोध मे रैली निकाले,
सभा करें। गया मे जिस तरह से राजद के स्थानिय नेताओं ने मुखिया –पार्षदो की सभा मे जाकर भाषणबाजी की उससे नितीश कुमार के इस आरोप को कि विपक्ष
उनकी सभा मे व्यवधान पैदा कर रहा है, बल मिलता है। हो सकता है
राज्य स्तर के नेतर्त्व ने प्रोत्साहित न किया हो परन्ति स्थानीय
नेता तो कर रहे हैं। इन्हीं स्थानिय नेताओ की गुंडागर्दी की अनदेखी ने राजद को सता
से बेदखल कर दिया। आज इन्ही स्थानिय नेताओं का अति उत्साह राजद की पुन: वापसी की राह मे रोडा साबित होगा। याद रखें अभी तक जनता अनिर्णय की स्थिति
मे हैं कहीं ऐसा न हो कि निर्णय लेने की प्रक्रिया हीं जनता बंद कर दे। स्थानिय निकायों
के प्रतिनिधियों को अधिकार की जगह पर जेल भेजकर इनके भ्रष्टाचार एवं लूट की जांच करने
की जरुरत । राजद और कांग्रेस द्वारा इन्हे दिया जा रहा समर्थन महंगा साबित होगा। जनता
को भाषण से नही प्रभावित किया जा सकता , उसके पास आंख और कान
दोनो है। अगर प्रचार से प्रभावित होना होता तो आज नितिश कुमार के खिलाफ़ आक्रोश नही
दिखता।
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बहुत सही कहा है, इस सब के पीछे षड़यंत्र भी नजर आ रहा है और नीतीश कुमार इन मुखिया पर अंकुश लगा रहें है तो आक्रोश भी पनपेगा ही
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