राहुल बनाम सोनिया








 





१९९० के बाद देश की हर सरकार ने संविधान के साथ बलात्कार किया है  इस बलात्कार का मौन साक्षी बनकर विपक्ष ने भी खुद को बलात्कारी के कठघरे मे खडा कर लिया है  कांग्रेस ने बलात्कार करते करते संविधान को अपनी रखैल बनने के लिये बाध्य कर दिया  मैं किसी दुर्भावना से यह नही कह रहा हूं बल्कि इसका प्रमाण है  मुझे नही पता कितने लोगों ने संविधान की प्रसतावना को पढा है  संविधान की प्रस्तावना: 
             
               " हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को :
             सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा    उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करनेवाली बंधुता बढाने के लिए   दृढ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवंबर, 1949 ई0 (मिति मार्ग शीर्ष शुक्ल सप्तमी, सम्वत् दो हजार छह विक्रमी) को एतद   द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।"
हमने समाजवाद को अंगीकार करने का प्रस्ताव रखा परन्तु उसे कभी भी अंगीकार किया नही । समाजवाद मात्र हमारे संविधान तक हीं सिमित रह गया । हो सकता है हमारे राजनेताओं की कोई मजबूरी रही हो देश के लोगो को बराबरी का हक न देने की । हमने समाजवाद को नही अपनाया परन्तु वह आज भी हमारे संविधान का हिस्सा है । देश ने कभी भी पूंजीवाद को स्विकार करने की प्रस्तावना नही रखी  , हम पूंजीवाद को संविधान की प्रस्तावना मे शामिल कर भी नही सकते हैं । इंदिरा गांधी ने सर्वप्रथम १९७६ में जब आपातकाल लागू था , समाजवाद एवं धर्मनिरपेक्षता को भारत के संविधान का हिस्सा बनाने का प्रस्ताव रखा था और संविधान के ४२वें संशोधन के माध्यम से समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता को संविधान की प्रस्तावना मे शामिल किया गया । इंदिरा गांधी के कार्यकाल के दौरान देश की आर्थिक नीति का झुकाव समाजवाद की ओर था और वस्तुत: हम मिश्रित अर्थव्यवस्था के दौर से गुजर रहे थें ।  इंदिरा गांधी ने सबसे पहले १९६९ मे समाजवाद की दिशा मे पहला कदम बढाते हुये बैंको का राष्ट्रीयकरण किया था और पुरी दुनिया के पुंजीवादी मुल्को ने इसकी आलोचना की थी । जयप्रकाश नारायन देश के पहले नेता थे जिन्होने खुलेआम इंदिरा गांधी के इस कदम की प्रशंसा करते हुये राजनीतिक अक्लमंदी का बडा कदम बताया था । देश को लोगो को पहली बार लगा था कि बैंक उनका भी है । लेकिन इंदिरा गांधी के निधन के साथ हीं देश के उपर पूंजीवाद की काली छाया मडराने लगी , कारण चाहे पश्चिम सभ्यता मे पढे-बडे हुये राजीव गांधी हो या सोनिया गांधी । राजीव गांधी का झुकाव भले हीं पूंजीवाद की ओर हो परन्तु पूंजीवाद को देश की आर्थिक नीतियों का हिस्सा बनाने का काम शुरु हुआ सोनिया गांधी के सता पर काबिज होने के बाद । कारण चाहें उनका पश्चिमी देशो और उनकी नीतियों के प्रति रुझान रहा हो या ईंदिरा गांधी से विरोध । संजय के रहते कभी भी राजीव गांधी को राजनीति मे निर्णायक भूमिका निभाने का मौका ईंदिरा गांधी ने नही दिया और सोनिया गांधी अपने कुनबे के साथ राजीव गांधी को लेकर अलग थलग रहीं । राजीव गांधी ने आम पतियों की मानसिकता के अनुरुप वही किया जो सोनिया गांधी को  अच्छा लगे । हालांकि इसमे राहुल गांधी को दोषी नही ठहराया जा सकता , उनकी उम्र बहुत कम थी । सोनिया गांधी को अर्थशास्त्र की  कितनी जानकारी है यह तो वही बता सकती हैं , लेकिन उन्हे कम से कम भारत के लोगो और उनकी जिंदगी के बारे मे बहुत कम पता है । आज भी उन्हे नही पता कि कैसी कठिन परिस्थितियों मे आम आवाम जिवन गुजार रहा   है । 1990 के दौर मे भारत मे पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का प्रवेश हुआ । हालांकि मनमोहन सिंह की राजनीतिक महत्वकांक्षा बहुत उची थी लेकिन उन्हे सबसे पहले ललित नारायन मिश्रा ने मौका प्रदान किया और उन्हे अपने विदेश व्यापार मंत्री के कार्यकाल के दौरान अपना सलाहकार नियुक्त किया , अब यह मनमोहन सिंह हीं बता सकते हैं  कि भारत से चिल्ली  हवाई यात्रा मे साथ साथ जाने के दौरान ऐसा क्या कुछ हुआ कि वे ललित नारायन मिश्रा के सलाहकार बन गये । ललित नारायन मिश्रा अर्थशास्त्र के ग्याता नही थें मनमोहन सिंह ने अपने कैरियर को नया मुकाम देने के लिये कौन सी पट्टी पढाई , यह वही बता सकते हैं । १९९१ मे नरसिंहा राव ने मनमोहन सिंह को अर्थशास्त्री बनाया , इस दरम्यान अपनी चतुर बुद्धि की बदौलत मनमोहन सिंह ने रिजर्व बैंक के गवर्नर से लेकर प्लानिंग कमीशन के उपाध्यक्ष पद का सफ़र तय किया । नरसिंहा राव ने अपनी मर्जी से मनमोहन सिंह को वित मंत्री बनाया या सोनिया गांधी के आदेश पर यह भी आजतक स्पष्ट नही हो पाया है या कम से कम मुझे नही पता । मनमोहन सिंह ने वितमंत्री पद पर बैठते हीं अन्तराष्ट्रीय मुद्रा कोष की सलाह पर चलते हुये पूंजीवादी नीतियों का पालन करना शुरु कर दिया , उन्होने अपनी छवि साफ़ सुधार बनाये रखने मे कोई कसर नही छोडी और अपने पूंजीवादी नीतियों को लायसेंस राज की समाप्ति की शुरुआत नाम दिया । यह दिगर बात है कि जब लायसेंस राज समाप्त हो रहा था तो उसे चलाने तथा नियंत्रण रखने वाली मशीनरी मे कोई परिवर्तन नही किया गया और न अधिकारियों की संख्या मे कमी  की गईमनमोहन सिंह पर १९९३ मे हीं शेयर घोटाला न रोक पाने का आरोप लगा था और उन्हे लगा कि शायद उनके राजनीतिक जिवन की समाप्ति का समय आ गया है, उन्होने अंतिम  प्रयास करते हुये वित मंत्री के पद से इस्तीफ़े की पेशकश कर डाली जिसे नरसिंहा राव ने स्विकार नही किया । मनमोहन सिंह जब वितमंत्री बनाये गयें तब उन्होने पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को अपनाने के पिछे यह तर्क दिया कि भारत की अर्थ व्यवस्था बर्बाद होने के कगार पर है । आंकडे बताते है कि जब मनमोह्न सिंह वितमंत्री बने उस समय देश का करेंट अकाउंट डेफ़िसीट देश के जीडीपी का 3.5  प्रतिशत था (करेंट अकाउंट डेफ़िसीट से तात्पर्य है निर्यात से होने वाली आय तथा आयात के लिये किये जानेवाले भुगतान का अंतर , विदेशी निवेश से होनेवाली आय तथा विदेशी निवेशक को किये जाने वाले भुगतान का अंतर , मोटे शब्दो मे देश को होनेवाली आय तथा भुगतान का अंतर ) आज वह करेंट अकाउंट डेफ़िसीट बढकर 4.5 प्रतिशत हो गया है और सरकार का कहना है कि वर्ष २०१३ तक इसे 3.5 प्रतिशत लाने का प्रयास किया जायेगा । अब यह मनमोह्न सिंह हीं बता सकते हैं कि १९९१ से २०१२ तक के बीच आर्थिक हालात मे क्या सुधार हुआ है । अभी सुब्बा राव सहित अन्य सरकारी अर्थ शास्त्रियों ने यह चिंता व्यक्त की है कि हम पुन: १९९० के दौर का सामना कर रहे हैं । सोनिया गांधी के  अपने  मुल्क इटली ने कभी समाजवाद को  नही देखा एक भवन निर्माण करने वाले राजमजदूर की पुत्री होने और स्वंय का खर्चा वहन करने के लिये होटल में वेट्रेस का काम करने वाली सोनिया गांधी , पूंजीवाद के अभिशाप को क्यों नहीं समझ पाई यह थोडा चकित करनेवाली बात है । चाहे गरीबी कारण रही हो या राजीव गांधी से प्यार , सोनिया गांधी १९६४ में यूके के कंब्रिज विश्वविद्यालय के बेल शिक्षा ट्रस्ट मे अंग्रेजी भाषा पढने गई और वहीं ट्रिनिटी कालेज मे शिक्षा ग्रहण कर रहे राजीव गांधी से एक रेस्तंरा जहां अपना खर्च निकालने के लिये वे वेट्रेस का काम करती थीं , उनकी मुलाकात राजीव से हुई और प्यार का सिलसिला शुरु हो गया तथा १९६८ मे ब्याह करने के बाद वे भारत चली आईं । सोनिया गांधी ने कभी गंभीरता से शिक्षा ग्रहण नही किया । अर्थ शास्त्र की कितनी जानकारी उन्हे हैं , यह सब को पता है । ईंदिरा गांधी के साथ भी सोनिया का संबंध बहुत सौहार्दयपूर्ण नहीं रहा । जब १९७७ मे इंदिरा गांधी सता से बाहर हो गई और विभिन्न मुकदमो का सामना कर रहीं थीं , उस समय सोनिया , राजीव गांधी को साथ लेकर विदेश चली गई , उन्हे भय था कि राजीव गांधी को भी जेल भेजा जा सकता है । आपातकाल के बाद केन्द्र की सता मे आइ जनता पार्टी अपने हीं अन्तरविरोधो के कारण समय के पहले सता के बाहर हो गई । दुबारा इंदिरा गांधी सता में आई । 1980 से 1984  तक इंदिरा गांधी के सता मे रहने के दौरान हमारी आर्थिक निति मे कोई बदलाव नही आया । भारत एक तरीके मिश्रित अर्थव्यवस्था वाला देश था । जहां समाजवादी अवधारणा के तर्ज पर अधिकांश बडे उद्योग राज्य के अंदर थें । जन सधारण के लिये अनेको योजनाओ का संचालन किया जा रहा था । लेकिन इंदिरा गांधी की हत्या के बाद बहुत कुछ बदल गया । विकल्प के अभाव और इंदिरा गांधी  की हत्या से उपजी सहानुभूति लहर ने १९८४ में राजीव गांधी को प्रधानमंत्री बनने मे मदद की । राजीव गांधी की शैक्षिक योग्यता बहुत सामान्य थी । वह स्नातक भी नहीं थें । शिक्षा ग्रहण करने के दौरान हीं उनकी भेट सोनिया गांधी से हो गई और शिक्षा पर प्यार हावी हो गया । बाद मे उन्होने पायलट की ट्रेनिंग ली और पायलट बन गयें । राजीव गांधी के सता मे आते हीं सोनिया गांधी का दौर शुरु हो गया । वह राजीव गांधी की सलाहकार बन गई । राजीव गांधी एक साफ़ दिल के इमानदार व्यक्ति थे तथा देश के लिये कुछ करने की चाह भी उनके अंदर थी परन्तु राजनिति के लिये आवश्यक गुणो का सर्वथा अभाव था । विभिन्न विचारधाराओं के बीच का अंतर और महत्व को समझने का प्रयास उन्होने नही किया । लालफ़िताशाही , परमिट एवं कोटा राज के कारण व्यवस्था मे आई बुराई को समाप्त करने के लिये उन्होने खुली अर्थव्यवस्था की ओर रुख किया ।
 इधर विश्व एक अलग बद्लाव से गुजर रहा था । सोवियत संघ मे गोर्बाचोव सता पर काबिज हो चुके थें यह १९८५ का काल था । यानी एक तरफ़ भारत मे राजीव गांधी सतासीन हुये वहीं दुसरी तरफ़ गोर्बाचोव । दुनिया एकपक्षीय हो रही थी । गोर्बाचोव पश्चिमी मीडिया की देन थें । मीडिया ने उन्हें युवा नेता के रुप मे प्रचारित करना शुरु किया और सोवियत संघ की एकमात्र आशा बताई ठिक उसी तर्ज पर जैसे भारत मे अन्ना , केजरीवाल, रामदेव को प्रचारित किया जा रहा है । १९८५ मे साम्यवादी पार्टी के जेनरल सेक्रेटरी बने और १९८८ मे राष्ट्रपति । सोवियत संघ के उच्चतम पद पर आसीन होने के मात्र तीन साल बाद १९९१ मे गोर्बाचोव ने सोवियत को विघटित कर दिया। पश्चिमी मुल्को को चुनौती देने वाले राष्ट्र का पतन हो चुका था । अमेरिका के एकाधिकार को रोकने वाली महाशक्ति विघटित हो गई । भारत का सोवियत संघ के साथ बहुत गहरा रिश्ता था । ऐसा माना जाता है कि गोर्बाचोव पूंजीवादी व्यवस्था से प्रभावित थे और अमेरिका के काफ़ी नजदीक थें । गोर्बाचोव ने बाद मे रुस के एक अरबपति के साथ मिलकर अलग राजनीतिक दल का भी गठन किया था । गोर्बाचोव को पश्चिमी राष्ट्रो ने अनेको सम्मान प्रदान किये उनमे एक नोबल शांति पुरुस्कार भी था जो १९९० मे उन्हे मिला था । सोवियत संघ के पतन के बाद  भारत अकेला पड गया । आर्थिक नीति के मोर्चे पर मनमोहन सिंह रिजर्व बैंक के गवर्नर १९८५ तथा उसके बाद योजना आयोग के अध्यक्ष के रुप मे निर्णायक भूमिका अदा कर रहे थें । वह वक्त था जब लायसेस राज को समाप्त करने के नाम खुली अर्थव्यवस्था की नीति को अपनाया गया तथा पर विदेशी पूंजी निवेश को आकर्षित किया जाने लगा । बोफ़ोर्स घोटाला भी उसी समय हुआ । राजीव गांधी की शिक्षा की कमी तथा सोनिया गांधी का पश्चिमी अर्थव्यव्स्था के प्रति रुझान ने धिरे धिरे समाजवादी अर्थव्यवस्था को समाप्त करने का काम किया । यानी ईंदिरा गांधी की नीतियों से कांग्रेस ने खुद को अलग करने की शुरुआत कर दी । राजीव गांधी को संचार क्रांति का जनक कहा जा सकता है हालांकि उससे आर्थिक नीतियों का कोई संबंध नही था । १९८९ के आम चुनाव मे बोफ़ोर्स घोटाला के कारण कांग्रेस सता से बाहर हो गई । वीपी सिंह प्रधानमंत्री बनकर आये लेकिन मंडल आयोग के विवादास्पद अनुशंसा के बाद उन्हे सता से हाथ धोना पडा। देश मे जातिय स्तर पर गहरी विभाजन की नींव भी वीपी सिंह के कार्याकाल मे पडी जिसका दंश आज भी मुल्क झेल रहा है । वीपी सिंह के बाद चन्द्रशेखर पीएम बने । बहुत दिनो के अंतराल के बाद इंदिरा गांधी के तेवर वाला व्यक्ति पीएम की गद्दी पर बैठा था । उस समय देश की आर्थि स्थिति बहुत खराब थी । भुगतान संतुलन को बनाये रखने के लिये जप्त किये गया सोना जो सरकारी खजाने में  पडा  था , उसे बेचने का साहसिक निर्णय चन्द्रशेखर ने लिया था । देश को बहुत दिनो बाद एक सच्चा समाजवादी प्रधान मंत्री मिला था लेकिन  वह राजनीति का शिकार हो गया । चन्द्रशेखर को कांग्रेस बाहर से समर्थन दे रही थी । उनके उपर राजीव गांधी की जासूसी करवाने का आरोप लगककर कांग्रेस ने समर्थन वापस ले लिया । चन्द्रशेखर ने टेलीविजन पर जनता को संबोधित करने के बाद अपना इस्तीफ़ा सौंप दिया । वह एक समय था जब जनता को चन्द्रशेखर के समर्थन मे सडको पर आना चाहिये था लेकिन जिस मुल्क के लोगों ने भगत सिंह के लिये जेल को तोडने की हिम्मत नही की उससे इस तरह की अपेक्षा नही की जा सकती । इस देश के लोग  सिर्फ़ दंगा करने मे अपनी हिम्मत दिखाते हैं । चन्द्रशेखर की सरकार से समर्थन वापस  लेने का फ़ैसला किसके इशारे पर लिया गया था यह भी रहस्य है । चन्द्रशेखर का रुझान समाजवादी व्यवस्था की ओर था । मनमोहन सिंह  उस समय १९८७ से १९९० तक एक अन्तर्राष्ट्रीय संस्था के महासचिव के रुप मे स्विटरजरलैंड मे थे परन्तु उनकी अच्छी पकड कांग्रेस के उपर थी । राजीव गांधी दो सालों से सता से बाहर थे , एक बहाना चाहिये था सरकार को गिराने का । चन्द्रशेखर का हटना देश के लिये दुर्भाग्य की शुरुआत थी  । 21 मई १९९१ को चुनाव प्रचार के दौरान तमिलनाडु के सिरिपेरंबुदुर नामक जगह पर चुनाव रैली को संबोधित करते समय तमिल आतंकवादियो ने राजीव गांधी की हत्या कर दी । पहले १९८४ मे इंदिरा गांधी की हत्या और उसके मात्र छह साल बाद राजीव गांधी ने सोनिया गांधी के अंदर भय पैदा कर दिया । वह कोई राजनेता तो थी नहीं और न हीं भारत से उन्हे कोई विशेष जुडाव था । वह १९९७ तक सक्रिय राजनिति से अलग रहीं लेकिन सरकार मे उनका हस्तक्षेप हमेशा बना रहा । १९९१ मे नरसिंहा राव की सरकार मे मनमोहन सिंह को वितमंत्री बनवाना उसी हस्तक्षेप का फ़ल था । यह दौर था जब कांग्रेस खुद को इंदिरा गांधी की नीतियों से अलग कर रही थी । लेकिन कांग्रेस के अंदर पूंजीवादी नीतियो को अपनाये जाने का विरोध होने की संभावना से इंकार नही किया जा सकता था , इसे रोकना था । वहीं प्रमुख विपक्षी दल भाजपा इन सबसे बेखबर सता मे आने के लिये बाबरी मस्जिद के भावनात्मक मुद्दे को उभारने मे व्यस्त थी । भाजपा की सबसे बडी राजनीतिक भुल थी वह । कांग्रेस की पूंजीवादी नीति का विरोध करके भाजपा न सिर्फ़ अपनी  संप्रदायिक छवि से छुटकारा पा सकती थी बल्कि जातिवादीसमाजवाद के लंबेदारो को हासिये पर ढकेल कर एक सशक्त राजनीतिक विकल्प के रुप मे खुद को स्थापित कर सकती थी । इंदिरा गांधी की लिगेसी को समाप्त करने के लिये जहां मनमोहन सिंह  ने 20 वर्षो के अंदर देश को विकसित राष्ट्र बनाने का वादा करना शुरु कर दिया , वहीं कांग्रेस के जो नेता सोनिया गांधी के नजदीक थे उनके माध्यम से मनमोहन सिंह का गुणगान किया जाने लगा । चिदंबरम ने तो मनमोहन सिंह की तुलना चीन के उदारवादी नेता देंग झियापोंग से किया , जकि दोनो के बीच जमीन आसमान का अंतर था । देंग जहां शुरु से हीं चीन की साम्यवादी दल से जुडे थें वहीं मनमोहन सिंह नौकरशाह थे , देंग ने अपने मुल्क मे अनेको जन  संघर्षों का कुशल नेतर्त्व किया था वहीं मनमोहन सिंह का कोई सार्वजनिक कार्य नही रहा । देंग ने एक नये प्रकार की समाजवादी सोच को जन्म दिया जो मार्केट आधारित अर्थव्यवस्था चीन की विशे्षता एवं जरुरतो को ध्यान मे रखकर अपनाई गई थी । कोई संशय न पैदा हो इसलिये अपने बदलाव को समाजवादी बाजार आधारित अर्थव्यवस्था नाम दिया । विदेशी पूंजी निवेश की अनुमति के साथ देश हित को ध्यान मे रखते हुये शर्तो को शामिल किया । अपनी मुद्रा को स्वतंत्र नही किया । जबकि मनमोहन सिंह ने इसके सर्वथा विपरित चलते हुये बगैर अंकुश लगाये और देश हित को ध्यान मे रखे , उन्मुक्त अर्थव्यवस्था को लागू किया । रुपया को स्वतंत्र कर दिया ।
खुद को देंग से ज्यादा   प्रगतिशील एवं उन्मुक्त अर्थव्यवस्था का पक्षधर साबित करने के लिये मनमोहन सिंह ने सरकारी कंपनियों को बेचकर , आ्धारभूत संरचना के विकास के लिये धन इकठ्ठा करने की बात की । सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को निलाम करने की प्रक्रिया शुरु की गई । देश की धरोहर कंपनियां बिकने लगी । मनमोहन सिंह के वित मंत्री वाले दौर मे हीं हमी आर्थिक नीति की खामी उभर कर सामने आई ।  देश भ्रष्टाचार मे घिर गया । जो नीतियां आम जनता के हित के लिये बनाई गई , उनका फ़ायदा सिर्फ़ बडे औध्योगिक घरानो को हुआ। अर्थव्यवस्था बद से बदतर होती चली गई। विदेशी पूंजी हमारी मजबूरी बन गई है । आज हम उनके इशारे पर चलने से इंकार करते है , कल वह पूंजी वापस ले लेंगें, देश दिवालिया हो जायेगा। यही देन है मनमोहन सिंह का बीस वर्षो का। अटल बिहारि वाजपेयी के कार्यकाल मे एक मौका आया था , लगा था गांव की पाठशाला मे पढा व्यक्ति गांव वालो का दर्द समझेगा , लेकिन फ़िर वही अर्थशास्त्र की जानकारी न होने का फ़ायदा भाजपा को नियंत्रित करने वाले व्यवसायिक घरानो ने उठाया । यशवंत सिंहा ने अमेरिका परस्ती में मनमोहन सिंह को भी मात देना शुरु कर दिया। मारिशस के रास्ते होनेवाले निवेश का घोटाला सबसे बडा था, जहां मारिशस की पूंजी को आकर्षित करने के लिये टैक्स छूट दी गई , उसका फ़ायदा भारत के व्यवसायिक घरानो ने उठाया और मारिशस के रास्ते निवेश कर के टैक्स की चोरी की । यशवंत सिंहा का कार्यकाल कम रहा यह गनीमत थी , वर्ना वे मनमोहन सिंह से बुरे वितमंत्री साबित हुयें। आज एकबार फ़िर हम अमेरिका का दबाव झेल रहे हैं। ईरान पर प्रतिबंध के बाद , अमेरिका के भय से हमने पेट्रोलियम पदार्थो का आयात ईरान से कम कर दिया है , हमारे यहां पेट्रोलियम उत्पादों की लागत बढ गई है , बढी हुई लागत का बोझ आम जनता पर दालने की कवायद भी मनमोहन सिंह ने शुरु कर दिया है । डीजल की किमत बढाकर, गैस की राशनिंग कर के। विदेशी पूंजी निवेश को वापस जाने से रोकने के लिये एफ़ डी आई को खुदरा क्षेत्र में प्रवेश की अनुमति देकर । शायद यह कांग्रेस की ताबुत मे अंतिम किल साबित हो । राहुल गांधी स्वंय से जूझ रहे हैं। उनके उपर आरोप लग रहा है खामोश रहने का । खामोशी के पिछे दर्द छुपा है । एक तरह देश , दुसरी तरह मां । किसे चुनें। राहुल गांधी को पता है , सोनिया गांधी के कारण देश इस तबाही के दौर से गुजर रहा है । सोनिया गांधी भी नही चाहती , राहुल बागडोर संभाले , प्रियंका उन्हें ज्यादा प्रिय हैं । देखना है देशहित मे एक बेटा अपनी मां से बगावत करता है या नही । यह परीक्षा की घडी है ।







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