भूला हुआ अतीत एक सच्ची कथा
भूला हुआ अतीत : एक सच्ची कथा
उसका विवाह पहले ही एक इंजीनियर से निश्चित कर दिया गया था। वह अपने माता-पिता की सबसे छोटी और सबसे दुलारी संतान थी—एक ऐसे प्रतिष्ठित ज़मींदार परिवार में जन्मी, जिसकी शक्ति और प्रभाव गाँव की सीमाओं से बहुत आगे तक फैली हुई थी। सैकड़ों बीघा उपजाऊ भूमि, नौकर-चाकरों की कतारें और सामाजिक प्रभुत्व—सब कुछ उनके नाम से जुड़ा था। उसके दो भाई और चार बहनें थीं, जिनका स्वभाव कठोर और दबंग माना जाता था। गाँव में कोई भी व्यक्ति उसे छेड़ने, तिरस्कार करने या कुत्सित दृष्टि डालने का साहस नहीं करता था। पिता और भाइयों की उपस्थिति ही किसी भी दुस्साहस को रोक देने के लिए पर्याप्त थी। उसका ननिहाल भी कम प्रभावशाली नहीं था। उसकी माँ अपने माता-पिता की एकमात्र संतान थीं। यद्यपि उनका रंग साँवला था और वे पारंपरिक सौंदर्य की कसौटी पर नहीं आँकी जाती थीं, फिर भी परिवार में उनका वर्चस्व निर्विवाद था। चाचा स्वास्थ्य विभाग में उच्च पद पर कार्यरत थे। परिवार गाँव में एक विशाल पैतृक भवन में रहता था और शहर में उनके दो मकान थे—एक पूर्ण, दूसरा निर्माणाधीन। परिवार की एकता और सामाजिक प्रतिष्ठा सर्वविदित थी। शहर में एक संकरी गली पूर्व से पश्चिम की दिशा में जाती थी। कुछ घरों के बाद, कोने पर, गली के उस पार एक मुस्लिम परिवार निवास करता था। उसी के समीप, एक किराए के मकान में, एक मुस्लिम युवक—लगभग सोलह से अठारह वर्ष की आयु का—पढ़ाई के उद्देश्य से रहता था। उसके अनेक हिंदू मित्र थे। हर संध्या एक साझा अड्डे पर युवकों की महफ़िल जमती, जहाँ हल्की-फुल्की चर्चाएँ होतीं। उस युवक और उस लड़की के बीच चल रहे प्रेम-संबंध की चर्चा सबको थी। कभी प्रशंसा, कभी ईर्ष्या—अक्सर बातचीत का केंद्र वही बन जाता था। इस कथा में उस लड़की का नाम रेणुका रखा गया है—उसके वास्तविक नाम से मिलता-जुलता। एक संध्या वह युवक बाहर नहीं आया। न अगले दिन, न उसके अगले दिन। तीसरे दिन चिंता में डूबे चार मित्र उसके घर पहुँचे। जब उसने द्वार खोला, तो उसके सिर पर गमछा बँधा हुआ था। उनमें से एक ने गमछा हटा दिया। सभी स्तब्ध रह गए। उसके बाल असमान रूप से, निर्दयता से काटे गए थे—मानो किसी ने क्रोध में कपड़े को कैंची से चीर दिया हो। स्पष्ट था—कुछ भयावह घटित हुआ था। उसी रात, बहुत आग्रह और मनुहार के बाद, मित्रों से घिरा वह युवक छत पर बैठा और अंततः मौन तोड़ा। दो रात्रि पूर्व, लगभग मध्यरात्रि के समय, रेणुका ने उसे बुलाया था। दोनों के बीच पहले ही प्रेम-पत्रों का आदान-प्रदान हो चुका था। शीतकालीन निस्तब्धता सड़क पर उतर आई थी—द्वार बंद थे, रज़ाइयों में लोग सिमटे हुए थे, और नगर निद्रा में डूबा था। मामा की दृष्टि से बचते हुए रेणुका ने उसे आते देखा। द्वार अधखुला था। वह दबे पाँव भीतर प्रवेश कर गया। चाचा अपने कक्ष में गहरी नींद में थे। इसके बाद जो घटित हुआ, वह युवावस्था की असावधानी थी—गोपनीयता, जिज्ञासा और अनुचित साहस से उपजी हुई। दोनों रज़ाई के नीचे एक-दूसरे के समीप थे पूर्णतःनग्न । अचानक, द्वार ज़ोर से खुला। रेणुका का चाचा सामने खड़ा था—चेहरा क्रोध से दहकता हुआ। क्षण भर में सब कुछ बिखर गया। युवक किसी प्रकार स्वयं को ढँकते हुए बिस्तर से कूद पड़ा। रेणुका ने रज़ाई में अपना मुख छिपा लिया। चाचा का आक्रोश उन्मत्त हो उठा। उसने रेणुका के बाल पकड़कर उसे घसीटा, बार-बार प्रहार किए, और ऐसी धमकियाँ दीं कि युवक का हृदय काँप उठा। उसके हाथ में एक कैंची आ गई। युवक गिड़गिड़ाने लगा। चाचा ने उसके बालों को मुट्ठी में जकड़कर बेरहमी से काट डाला और चेतावनी दी—यदि इस घटना का एक भी शब्द बाहर गया, तो परिणाम प्राणघातक होंगे—केवल युवक के लिए नहीं, रेणुका के लिए भी। युवक वहाँ से भाग निकला। बाद में जब मित्रों ने उसके अचानक गायब होने का कारण पूछा, तो उसने झूठ कहा—कि वह नाई के पास गया था। भय और लज्जा ने उसे घर में ही कैद कर दिया। अंततः मित्र ही उसे नाई के पास ले गए, ताकि कटे-फटे बाल कुछ सँवारे जा सकें। जीवन ऊपर से सामान्य दिखने लगा। रेणुका विद्यालय जाती रही, मोहल्ले में दिखाई देती रही, बाज़ार भी आती-जाती रही। बाहरी रूप से कुछ भी परिवर्तित नहीं हुआ था। किन्तु वह युवक जानता था— चाचा का संदेश स्पष्ट था— जो बीच में रोक दिया गया था, वह क्षमा नहीं किया गया था—केवल स्थगित किया गया था।
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