मुझमे मेरा कुछ नही
मुझमे ,मेरा कुछ नही me, owe nothing
Mother , mostly remained silent . Her Stony persona never permitted to flourish my childhood and adolescence . I always identified myself matured.
hardly anyone visits our house except the newspaper’s hawker and milkman . One day I hesitantly asked, mother, why no one visit us? Unlike my estimation, instead of stress, a relief spread over my mother’s face, perhaps mother was waiting since years to counter the same question.
It was the mother’s stressless face that always awakened a sense of courage within me. My Childhood starts to sprout inside me, my wish to swing in mother’s neck, hide the head in her lap but the Wish did not ever realize.
Mom had told , Mom and Dad had fled away and love married against the wishes of the family . After two years of marriage, my father died in a road accident. Everyone blamed mother wretched one. Mom was saying, "You're very much like your father , Same complexion, same eyes, same chiseled feature.” As the Feeling of the mother was melting ,some changes were taking place within me, my existence was becoming wooden . till date , mother, a person of the firm personality , now, was looking very much frightening sticky creature ,answerable to my dark complexion , my ugliness, my loneliness .
Incommunicativeness with mom was widening. Mom took the lead on few occasions but my reluctance always shattered her enthusiasm .
Any imagination to be like mother was developing hatefulness , I decided I will neither fall in love nor would be teacher
Continued..........
मुझमे ,मेरा कुछ नही
माँ ,ज्यादातर चुप ही रहती थी । माँ के पथराये हुए व्यक्तित्व ने मेरे बचपना और किशोरपन को कभी पनपने ही नही दिया। मुझसे मेरी पहचान हमेशा एक प्रौढ के रूप मे ही रही थी।
मेरे घर अखबार और दुध वाले को छोड शायद ही कोई आता था। एक दिन मैने हिचकिचाते हुए माँ से पुछ ही लिया , हमारे यहां कोई आता क्यों नही ? मेरे अनुमान के विपरीत , माँ के चेहरे पर तनाव के जगह राहत पसर गया था। जैसे , माँ वर्षों से इसी प्रश्न के इंतजार मे हो । माँ का ऐसा चेहरा मुझमे साहस जगाता था। मेरे अन्दर बचपन उगने लगता था। जी चाहता माँ के गले मे झुल जाऊँ। माँ के गोदी मे सर छुपा लुँ। साध कभी पुरी नही हुई।
माँ ने बताया , माँ और पिताजी ने घर वालों के मरजी के विरूद्घ भाग कर प्रेम विवाह किया था। विवाह के दो वर्ष पश्चात ही पिताजी की एक सडक दुर्घटना मे मृत्यु हो गई। सबने माँ को मनहुस मान लिया। माँ कह रही थी "तुम बिल्कुल अपने पिताजी पर गई हो। वही रंग , वही नैन -नक्श।" माँ के भाव जैसे जैसे पिघल रहे थे, मेरा वजूद काठ होता जा रहा था। आजतक ,दृढ शख्सियत लगने वाली माँ , अब बहुत और बहुत लिजलिजी लग रही थी। मेरे काले रंग , मेरे कुरूपता , मेरे अकेलेपन सबके लिये माँ ही जिम्मेवार है।
माँ और मेरे बीच का अबोलापन बढता जा रहा था। दो चार बार माँ ने कोशिश की पर मेरे निरउत्साह ने हर बार उनके उत्साह को ध्वस्त कर दिया।
माँ जैसे होने की किसी भी संभावना से मुझे नफरत होने लगी थी। मैने तय कर लिया की न तो प्रेम करूँगी न ही शिक्षिका बनुँगी
मेरे घर अखबार और दुध वाले को छोड शायद ही कोई आता था। एक दिन मैने हिचकिचाते हुए माँ से पुछ ही लिया , हमारे यहां कोई आता क्यों नही ? मेरे अनुमान के विपरीत , माँ के चेहरे पर तनाव के जगह राहत पसर गया था। जैसे , माँ वर्षों से इसी प्रश्न के इंतजार मे हो । माँ का ऐसा चेहरा मुझमे साहस जगाता था। मेरे अन्दर बचपन उगने लगता था। जी चाहता माँ के गले मे झुल जाऊँ। माँ के गोदी मे सर छुपा लुँ। साध कभी पुरी नही हुई।
माँ ने बताया , माँ और पिताजी ने घर वालों के मरजी के विरूद्घ भाग कर प्रेम विवाह किया था। विवाह के दो वर्ष पश्चात ही पिताजी की एक सडक दुर्घटना मे मृत्यु हो गई। सबने माँ को मनहुस मान लिया। माँ कह रही थी "तुम बिल्कुल अपने पिताजी पर गई हो। वही रंग , वही नैन -नक्श।" माँ के भाव जैसे जैसे पिघल रहे थे, मेरा वजूद काठ होता जा रहा था। आजतक ,दृढ शख्सियत लगने वाली माँ , अब बहुत और बहुत लिजलिजी लग रही थी। मेरे काले रंग , मेरे कुरूपता , मेरे अकेलेपन सबके लिये माँ ही जिम्मेवार है।
माँ और मेरे बीच का अबोलापन बढता जा रहा था। दो चार बार माँ ने कोशिश की पर मेरे निरउत्साह ने हर बार उनके उत्साह को ध्वस्त कर दिया।
माँ जैसे होने की किसी भी संभावना से मुझे नफरत होने लगी थी। मैने तय कर लिया की न तो प्रेम करूँगी न ही शिक्षिका बनुँगी
जारी
मुझमे ,मेरा कुछ नही -भाग 2
माँ और मै , नदि के दो किनारे के तरह थे । साथ-साथ और दुर -दुर भी , अपने - अपने बवडंर को थामे हुए, किसी पुल के अन्तहीन इन्तजार मे। अब और भी दुर हो गए थे।
माँ, सुबह भजन बजा देती थी । हम दोनो यंत्रवत अपना दैनिक कार्य करते। हमारे बीच कभी कोई बहस नही हुई। न ही कभी सवाल पुछने की जरूरत पडी। ऐसे भी मेरे जिवन के सारे फैसले , सैन्टेरी नैपकिन के ब्रांड से लेकर हेयर कटिंग , कपडे , स्कुल , काॅलेज सब कुछ , माँ ही तय करती थी।
मै भी क्या करती ?बगावत मेरे जीन मे था ।मैने तय कर लिया था , कोई न कोई अनिष्ट करके रहुँगी । इस तरह मै माँ को सजा देना चाहती थी , मेरे काले रंग के लिये , मेरे भदेशपन के लिए, मेरे अकेलेपन के लिए। माँ भी माँ थी। उनके आँखों मे हर पल किसी अनिष्ट की आशंका तैरती रहती थी।
हम दोनो सुबह ताला बन्द कर साथ निकलते थे । हम दोनो के पास एक- एक चाभी थी। शाम को माँ, मुकेश के गाने बजाती। माँ एक प्याली चाय लेकर पेपर मे धस जाती , मै खिडकी के पास बैठ जाती। रात का खाना पुछकर माँ , हमारे बीच की चुप्पी तोडती।
हम दोनो का जीवन , बेहद सादा और समतल था। माँ ने मुझे , कभी भी किसी चीज के लिए मना नही किया । शायद कभी जरूरत ही नही पडी । इसके अलावा , माँ पुरे मनोयोग से पाई पाई बचाती थी ताकि वो मेरे लिए ढंग का घर और वर खरीद कर मेरा भविष्य सुरक्षित कर सके । मै बेवजह पैसे खर्च करने लगी थी। माँ तब भी चुप रही। शायद , माँ के चुप्पी का कारण उनका अपराधबोध रहा होगा। ऐसे भी मुझे लगता है , स्त्री मे अपराधबोध जल्दी पनपता है और थेथर की तरह जड जमा लेता है।
एक , रात जब माँ , किचन मे थी , मैंने सब कुछ खत्म कर देने का फैसला किया। चुपचाप , दबे पाँव घर से निकल पडी। पर होनी पर अपने करने का वश कहाँ चलता है ।अगर मेरा करना ही मेरा होनी होता , तो , वो सब कुछ , क्यों होता, जो हुआ ।
माँ, सुबह भजन बजा देती थी । हम दोनो यंत्रवत अपना दैनिक कार्य करते। हमारे बीच कभी कोई बहस नही हुई। न ही कभी सवाल पुछने की जरूरत पडी। ऐसे भी मेरे जिवन के सारे फैसले , सैन्टेरी नैपकिन के ब्रांड से लेकर हेयर कटिंग , कपडे , स्कुल , काॅलेज सब कुछ , माँ ही तय करती थी।
मै भी क्या करती ?बगावत मेरे जीन मे था ।मैने तय कर लिया था , कोई न कोई अनिष्ट करके रहुँगी । इस तरह मै माँ को सजा देना चाहती थी , मेरे काले रंग के लिये , मेरे भदेशपन के लिए, मेरे अकेलेपन के लिए। माँ भी माँ थी। उनके आँखों मे हर पल किसी अनिष्ट की आशंका तैरती रहती थी।
हम दोनो सुबह ताला बन्द कर साथ निकलते थे । हम दोनो के पास एक- एक चाभी थी। शाम को माँ, मुकेश के गाने बजाती। माँ एक प्याली चाय लेकर पेपर मे धस जाती , मै खिडकी के पास बैठ जाती। रात का खाना पुछकर माँ , हमारे बीच की चुप्पी तोडती।
हम दोनो का जीवन , बेहद सादा और समतल था। माँ ने मुझे , कभी भी किसी चीज के लिए मना नही किया । शायद कभी जरूरत ही नही पडी । इसके अलावा , माँ पुरे मनोयोग से पाई पाई बचाती थी ताकि वो मेरे लिए ढंग का घर और वर खरीद कर मेरा भविष्य सुरक्षित कर सके । मै बेवजह पैसे खर्च करने लगी थी। माँ तब भी चुप रही। शायद , माँ के चुप्पी का कारण उनका अपराधबोध रहा होगा। ऐसे भी मुझे लगता है , स्त्री मे अपराधबोध जल्दी पनपता है और थेथर की तरह जड जमा लेता है।
एक , रात जब माँ , किचन मे थी , मैंने सब कुछ खत्म कर देने का फैसला किया। चुपचाप , दबे पाँव घर से निकल पडी। पर होनी पर अपने करने का वश कहाँ चलता है ।अगर मेरा करना ही मेरा होनी होता , तो , वो सब कुछ , क्यों होता, जो हुआ ।
जारी
मुझमे , मेरा कुछ नही - 3
मेरी, संवेदनाएं कुन्द हो गई थी। यंत्रवत चलते हुए मै ,रेलवे ट्रैक पर जाकर बैठ गयी थी। अपने लिए फैसलों को जिन्दगी कम मानती है। एक पुरूष एक स्त्री माँ को घर से बुला ले आये थें। मै , माँ के साथ घर लौट आयी थी। माँ हमेशा की तरह आज भी चुप थी। मै अपने कमरे मे आ गयी। माँ ने बाथरूम मे जाकर नल खोल दिया था। माँ की सिसकियाँ पानी के आवाज के साथ मिलकर मेरा कलेजा काट रही थी। जी चाहता , माँ के पैरो पर गिर कर माफी माँग लुँ ,गले लगा कर सब कुछ समान्य हो जाने का आश्वासन दुँ ।परन्तु मै आँखें बन्द कर पडीं रही ।कुछ देर बाद माँ खाना ले आयी थी । मेरे माथे पर हाथ फेरा । मै उठकर बैठ गयी । माँ खाना रखकर चली गयी थी। रोटियों के स्वाद के साथ टप -टप चुते आँसुओं का खारापन घुल मिल गया था।
मैने नौकरी करने का फैसला किया था । बिना अनुभव के ढंग की नौकरी मिलनी मुश्किल थी। दो वर्ष युं ही छोटी मोटी नौकरियों मे निकल गया । अब मुझे एक कार डिलर के यहाँ असिस्टेंट मैनेजर का काम मिल गया था।ठीक दस बजे मैं आँफिस पहुँच गयी थी। रिसेप्शनीस्ट ने इंटरकाॅम मिलाया । मुझे लेकर मैनेजर के केबिन मे छोड आयी । मेरे गुडमर्निंग सर के प्रत्युत्तर मे निखिल ने अपना हाथ मेरी ओर बढा दिया था । निखिल के हाथ का मजबुत और मुलायम स्पर्श अच्छा लगा था । धीमा धीमा संगीत सुकून देने वाला था । निखिल ने मुस्कराते हुए कहा था , सब मुझे निखिल कहते हैं। तुम्हे सर कहने की जरूरत नही । निखिल ने मुस्कराते हुए पूछा था , चाय या कॉफी ? मैंने आदतन "ना" कह दिया । निखिल ने फिर पूछा ,थम्स अप । मैने इस आग्रह से पिछा छुडाने के लिए चाय कह दिया ।
निखिल का हाथ ,सिगरेट के पैकेट पर था । निखिल ने मेरी आपत्ति जाननी चाही तो मै मुस्कुरा पडी ।
धुएँ के उस पार निखिल को पहली बार ठीक से देख पाई थी । कानों के पास पके हुए बाल , तरल आँखें , सिगारेट से काले पड गये होठ , आकर्षक प्रौढ और सौम्य छवि ।
ऐसा लगा था जिन्दगी मुझे " मुकेश के दर्द भरे नगमों" से बाहर बुला रही हो।
मैने नौकरी करने का फैसला किया था । बिना अनुभव के ढंग की नौकरी मिलनी मुश्किल थी। दो वर्ष युं ही छोटी मोटी नौकरियों मे निकल गया । अब मुझे एक कार डिलर के यहाँ असिस्टेंट मैनेजर का काम मिल गया था।ठीक दस बजे मैं आँफिस पहुँच गयी थी। रिसेप्शनीस्ट ने इंटरकाॅम मिलाया । मुझे लेकर मैनेजर के केबिन मे छोड आयी । मेरे गुडमर्निंग सर के प्रत्युत्तर मे निखिल ने अपना हाथ मेरी ओर बढा दिया था । निखिल के हाथ का मजबुत और मुलायम स्पर्श अच्छा लगा था । धीमा धीमा संगीत सुकून देने वाला था । निखिल ने मुस्कराते हुए कहा था , सब मुझे निखिल कहते हैं। तुम्हे सर कहने की जरूरत नही । निखिल ने मुस्कराते हुए पूछा था , चाय या कॉफी ? मैंने आदतन "ना" कह दिया । निखिल ने फिर पूछा ,थम्स अप । मैने इस आग्रह से पिछा छुडाने के लिए चाय कह दिया ।
निखिल का हाथ ,सिगरेट के पैकेट पर था । निखिल ने मेरी आपत्ति जाननी चाही तो मै मुस्कुरा पडी ।
धुएँ के उस पार निखिल को पहली बार ठीक से देख पाई थी । कानों के पास पके हुए बाल , तरल आँखें , सिगारेट से काले पड गये होठ , आकर्षक प्रौढ और सौम्य छवि ।
ऐसा लगा था जिन्दगी मुझे " मुकेश के दर्द भरे नगमों" से बाहर बुला रही हो।
शेष और अन्तिम भाग कल
मुझमे , मेरा कुछ नही- भाग 4
दस से छह बजे तक का समय श्रमसाध्य था पर थकाउँ नहीं। आँकडों मे उलझना हमेशा से ही मुझे मेडिटेशन जैसा लगता है। चिठ्ठीयाँ निखिल ड्राफ्ट कराते थे ।फाइलें लेते देते , टैली मे एंट्री समझाते हुए निखिल के अँगुलियों का स्पर्श मुझे विचलित कर देता था ।सारी शशरीर झनझने लगता था । दिमाग सुन्न हो जाता था।लगता था कान के पिछे कोई लावा पिघलता पिघलता मेरे सारे वजुद मे उतर गया हो । मै निखिल के किसी भी स्पर्श से बचने के लिए अतिरिक्त सावधान रहने लगी थी । निखिल ने मेरी सावधानी छुपी न रही । निखिल ने भी यथासंभव दुरी बनाकर रहने लगे थें । मै अपने इस मौन संप्रेषण के कला पर मुग्ध हो गयी थी ।परन्तु निखिल मेरे इस व्यवहार से हताश लगने लगे थे । इधर आँफिस के लडकियों के बीच "मुझे जिना सिखा दो न , अधुरी हुँ , मै वर्षों से , मुझे पुरी बना दो न ........" गाना वायरल हो रहा था । मेरा भी मन पुरुष साहचर्य के लिए डुबने -उतराने लगता था।
आखिर एक दिन निखिल ने सिगरेट के धुएँ मे रूकरूककर कह ही दिया , तुम चाहो तो तुम्हारा ट्रांसफर कही और ले लो। तुम्हारी असहजता मुझे देखी नही जाती । तुम जिनियस हो पर ये तुम्हारा ट्रेजडी क्वीन होना मुझसे बर्दाश्त नही होता । मुझे काटो तो खुन नही । टपाटप आँसुओं के बुँद चु पडे थे । निखिल उठकर मेरे पास आ गये थे । पास बहुत पास । मुझे अपने बाहुपाश मे ले लिया था ।
26 बसंत जिन्दगी के यु ही गुजर गये थे , काठ जैसा । नही जानती थी पुरूष के बाहों का ये अटुट सुरक्षा घेरा इतना सुख और शांति देता है । आज समझ मे आया , पुरूष सुरक्षा और सत्ता के लिए युद्ध करता है। शांति के लिए धर्म और अध्यात्म का निर्माण करता है, स्त्री अपने पुरुष की परिधि बन जाती है । निखिल कह रहे थे , कर सको तो मुझपर भरोसा करो , मै कभी तुम्हें लेट डाऊन नही करूँगा । होश संभालने से लेकर अबतक का हताशा , घुटन और आक्रोश का जो जहर जमा था,निखिल के स्पर्श के ताप से कपुर बन उडता जा रहा था
दस से छह बजे तक का समय श्रमसाध्य था पर थकाउँ नहीं। आँकडों मे उलझना हमेशा से ही मुझे मेडिटेशन जैसा लगता है। चिठ्ठीयाँ निखिल ड्राफ्ट कराते थे ।फाइलें लेते देते , टैली मे एंट्री समझाते हुए निखिल के अँगुलियों का स्पर्श मुझे विचलित कर देता था ।सारी शशरीर झनझने लगता था । दिमाग सुन्न हो जाता था।लगता था कान के पिछे कोई लावा पिघलता पिघलता मेरे सारे वजुद मे उतर गया हो । मै निखिल के किसी भी स्पर्श से बचने के लिए अतिरिक्त सावधान रहने लगी थी । निखिल ने मेरी सावधानी छुपी न रही । निखिल ने भी यथासंभव दुरी बनाकर रहने लगे थें । मै अपने इस मौन संप्रेषण के कला पर मुग्ध हो गयी थी ।परन्तु निखिल मेरे इस व्यवहार से हताश लगने लगे थे । इधर आँफिस के लडकियों के बीच "मुझे जिना सिखा दो न , अधुरी हुँ , मै वर्षों से , मुझे पुरी बना दो न ........" गाना वायरल हो रहा था । मेरा भी मन पुरुष साहचर्य के लिए डुबने -उतराने लगता था।
आखिर एक दिन निखिल ने सिगरेट के धुएँ मे रूकरूककर कह ही दिया , तुम चाहो तो तुम्हारा ट्रांसफर कही और ले लो। तुम्हारी असहजता मुझे देखी नही जाती । तुम जिनियस हो पर ये तुम्हारा ट्रेजडी क्वीन होना मुझसे बर्दाश्त नही होता । मुझे काटो तो खुन नही । टपाटप आँसुओं के बुँद चु पडे थे । निखिल उठकर मेरे पास आ गये थे । पास बहुत पास । मुझे अपने बाहुपाश मे ले लिया था ।
26 बसंत जिन्दगी के यु ही गुजर गये थे , काठ जैसा । नही जानती थी पुरूष के बाहों का ये अटुट सुरक्षा घेरा इतना सुख और शांति देता है । आज समझ मे आया , पुरूष सुरक्षा और सत्ता के लिए युद्ध करता है। शांति के लिए धर्म और अध्यात्म का निर्माण करता है, स्त्री अपने पुरुष की परिधि बन जाती है । निखिल कह रहे थे , कर सको तो मुझपर भरोसा करो , मै कभी तुम्हें लेट डाऊन नही करूँगा । होश संभालने से लेकर अबतक का हताशा , घुटन और आक्रोश का जो जहर जमा था,निखिल के स्पर्श के ताप से कपुर बन उडता जा रहा था
जारी
नोट : आज समाप्त नही कर पाने के लिए क्षमाप्रार्थी हुँ ।
नोट : आज समाप्त नही कर पाने के लिए क्षमाप्रार्थी हुँ ।
निखिल ने मेरे लिए दुनिया के सारे दरवाजे खोल दिए थे । उडने का जी चाहता था । जी चाहता था, बाँहे फैलाये सारे दुनिया मे दौडती फिरूँ । माँ के गले मे झुल जाऊँ। माँ को चुम लुँ।इधर माँ ने शहर के सभी प्रमुख समाचार पत्रों मे मेरे शादी के लिए विज्ञापन देना शुरू कर दिया था।
एक रविवार अचानक ही निखिल अपनी पत्नी और दो बच्चों को ले कर मेरे घर आये थे ।बच्चों के आने से पहली बार इस घर मे जिवन जाग उठा था। निखिल का परिवार कुछ दिनों पहले ही गाँव से आया था ।निखिल ने बताया था , उनके गाँव मे संयुक्त परिवार है और परम्परा के विरूद्घ पहली बार वो अपना परिवार लेकर बाहर आये है ।
निखिल जब भी भावनात्मक दबाव महसूस करते , सिगरेट पिते हुए रूक रूक बाते करते। धुएँ के उस पार निखिल की आवाज बहुत दुर से आती हुई लग रही थी , " संयुक्त परिवार मुझे हमेशा सामन्तवाद का अवशेष लगता है । झुण्ड मे इंसान विचारहीन और संकीर्ण हो जाता है। माँ को तो नही निकाल पाया पर मै रेणु और बच्चों को निकाल लाया ।मेरे लिए रेणु का देवत्व भाव मुझे विचलित करता है। समर्पित सहचार्य के बावजूद हम दोस्त नही बन सके। काम संबंधो के नीव पर टिका रिश्ता खारे पानी जैसा होता है । विवाह और परिवार सुविधावादी व्यवस्था है, जो स्त्री के दासत्व से संपोषित होता है । समाज स्त्रियों को बेहतर दास बनने के लिए प्रोत्साहित और पुरस्कृत करता है। स्वतंत्र स्त्री को दण्डित करने का नया प्रतिमान स्थापित करता है।
निखिल का परिवार , मै और माँ सब साथ साथ घुमते , फिल्म देखते, खाते , बतियाते । निखिल का वैराग्य और मेरा रूप , सब को हमारे रिश्ते का गारंटी पेपर लगता था ।
नये एकाउंट साफ्टवेयर के लिए गोवा मे दो दिवसीय कार्यशाला का आयोजन किया गया था । हम शाम के चार बजे के आस पास गोवा पहुंच गये थे। पहली बार समुद्र देखा, मोहित हो गई । शाम ढलने लगी थी । निखिल ने प्रेजेन्टेशन फाइनल करने के लिए अपने कमरे मे बुलाया था । सुरज का चूटकी चुटकी सौंदर्य समुद्र मे घुला जा रहा था ।
निखिल ने आग्रह से पुछा , वोदका पिओगी? मेरी आँखे चौडी हो गई थी। निखिल मेरे इस एक्सप्रेशन पर ठहाके मार कर हँस रहे थे। ये शाम ही अजीब था ।एडवेंचर करने का मन हो आया था । पहला घुट कुछ अजीब सा लगा पर धिरे धिरे मुक्ति का एहसास हो रहा था । निखिल बिस्तर पर आ गये थे । सिगरेट सुलगा लिया था । लाईट बन्द कर नाईट बल्ब जला दिया था । अनजाने ही मेरी चिख निकल गयी थी । निखिल ने अपने हाथ मेरे होठों पर धर दिये थे " बाहर देखो"। अँधेरे के सौंदर्य ने हतप्रभ कर दिया था। अभिभुत होकर निखिल के गले लग गयी । तुफान के तरह हमारे बीच कितने क्षण गुजर गये थे ।सिगरेट नीचे पडा सुलग रहा था । निखिल का आलिंगन धिरे धिरे ढिला पढने लगा , निखिल के हाथों मे प्रणय का उत्ताप नही था, स्नेह था । निखिल का स्वर काँप रहा था "मैं अपने प्यार को अभिशप्त नही होने दुँगा ।"
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